अन्वेषक: संघीता श्रीराम

व्यवसाय: आध्यात्मिक एक्टिविस्ट

स्थान: तिरुवन्नामलाई, तमिलनाडु

वह एक लेखक है, एक एक्टिविस्ट है, एक उद्यमी है, एक शिक्षाविद् है, एक संयोजक है, एक बागवान है, एक गायिका है, एक कलाकार है। वह एक औरत है और एक माँ भी… पर वह खुद को एक यात्री कहलाना पसंद करती है। एक ऐसी यात्री जो निरंतर अपने जीवन के अनुभवों से सीखते हुए और उनसे उभरकर आए सवालों के जवाब खोजते हुए एक ऐसे पथ पर यात्रा कर रही है जहाँ कोई मंज़िल नहीं है, बस है तो कुछ पड़ाव। जहाँ उसे कुछ समय रुककर आगे बढ़ जाना है।

मैं बात कर रहा हूँ हमारे अगले परिंदे संगीता श्रीराम की, जिन्हें मैं peaceful warrior भी कहता हूँ। अपना आधा जीवन चेन्नई मे बिताने वाली संगीता वर्तमान में, अपने जीवन में और रंग भरते हुए उसे सहज, सादगीपूर्ण और बनाने की खोज पर है। उनकी कहानी लिखना मेरे लिए इस यात्रा मे अब तक का सबसे मुश्किल काम है। मुझे नहीं पता कि मैं उनकी कहानी के साथ कितना न्याय कर पाऊँगा। पहली नज़र मे लगता है कि उनकी कहानी दो हिस्सों मे बँटी हुई है जो समांतर रूप से एक साथ चलती नज़र आती है पर जब हम इन कहानियों कि गहराई मे जाएंगे तो हम देख पाएंगे कि दोनों कहानियाँ हकीकत मे एक दूसरे का ही प्रतिबिंब है। उनकी कहानी या संघर्ष, उसे जो भी नाम देना दे लीजिये, उनके पैदा होने के साथ ही शुरू हो गयी थी। क्योंकि उन्होने इस पितृसत्तात्मक समाज मे एक लड़की के रूप जन्म लिया था। जब वे थोड़ी बड़ी हुई तब उन्हें इस बात का एहसास होने लगा की हमारे समाज एक लड़की को आज़ादी भी ज़ंजीरों मे बांध कर दी जाती है। लड़कियों को मुक्त समाज के नाम पर शीक्षा देने का दिखावा तो किया जाता है पर साथ ही मे उनपर कई सारी पाबंदिया और उम्मीदों का भोज भी लाद दिया जाता है। एक रूढ़िवादी सोच के चलते उनसे यह आशा की जाती है कि लड़की होने के नाते उसे सारे घरेलू कार्यों मे निपुण होना चाहिए, उसे शाम ढलने से पहले घर आ जाना चाहिए आदि। ऐसी हजारों कहीं और अनकही पाबंदिया जो हमारे भारतीय समाज मे डर और रूढ़िवादिता के चलते लड़कियों पर लाद दी गयी उससे उन्हे घुटन होने लगी थी। फलस्वरूप वे धीरे-धीरे विद्रोही होने लगी थी, हम कह सकते हैं कि यहीं से उनकी स्वयं को खोजने कि शुरुआत हुई थी। अपने विद्रोह के चलते वे अपने कॉलेज के समय मे NSS(National service scheme) के जुड़कर विभिन्न सामाजिक कार्यों मे भाग लेने लगी थी। वो जानती थी कि यह ऐसा कार्य है जिसके लिए उन्हें ना तो कोई प्रोत्साहित करेगा ना मना पर उनके यह करने से कोई खुश भी नहीं होगा। इन सामाजिक कार्यों को करते समय इन्हे शहर से जुड़ी विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं के बारे पता चला। तब संगीता ने इन विषय पर अपनी समझ विकसित करने के लिए कई पुस्तकों का अध्ययन किया और कॉलेज खत्म करने के बाद तीन साल के लिए एक संस्था के साथ जुड़कर शहरी समुदायों को साथ जोड़ते हुए कचरा प्रबंधन, बच्चों को पर्यावरण के लिए जागरूक करना, जल प्रदूषण की समस्याओं समाधान के लिए कई कार्य किए। तीन साल बाद इन्हे एक यूथ प्रोग्राम के तहत 6 महीने के लिए अमेरिका जाने का मौका मिला। जहाँ उन्होने पारिस्थितिक तंत्र को पुन:बहाल करने का काम किया व उसका अध्ययन किया। इसी दौरान उन्होने वैश्वीकरण के कारण पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों पर भी गहराई से अध्ययन किया और वैश्वीकरण के विरुद्ध कई विरोध प्रदर्शनों मे सक्रिय भूमिका निभाई।

वे कहती है कि “इन विरोध प्रदर्शनों मे भाग लेना और संगर्ष करना हकीकत मैं, मेरी संस्कृति द्वारा मुझ पर थोपी गयी पाबंदियों और उम्मीदों के साथ चल रहे मेरे भीतरी सघर्ष का ही प्रतिबिंब था। जब मैं अमेरिका गयी तब मुझे पहली बार आज़ादी का एहसास हुआ और उस आज़ादी के कारण ही मेरा विद्रोही स्वभाव खुलकर बाहर निकल पाया।”

भारत लौटने के बाद वे 6 महीनों तक उन्होने जमीनी अकीकत को समझने के लिए भारत भर मे कई गावों की यात्रा करी, साथ ही वे गांधी दर्शन पर आधारित ग्राम स्वराज कि परिकल्पना को समझने व उसे तमिलनाडू के गावों मे कार्यान्वित करने के लिए एक पंचायत स्तर के गांधीवादी नेता के साथ जुड़कर काम करने लगी। पर जब उन्हे इस काम से निराशा हाथ लगी तब वे तमिलनाडु मे जैविक खेती पर चल रहे आंदोलन के जुड़कर काम करने लगी।  अगले कुछ सालों तक इस आंदोलन के साथ जुड़कर काम करने के साथ-साथ वे चेन्नई IIT मे NSS संयोजक के रूप मे भी काम करती रहीं जहाँ इनहोने विद्यार्थियो को NSS के माध्यम से जमीनी मुद्दों को समझने का मौका उपलब्द्ध कराया। उच्च अधिकारियों कि राजनीति के चलते उन्हे यह काम जल्द ही छोड़ना पड़ा।

2006 मे इनके जीवन मे एक ऐसा मोड आया, जहाँ इन्हे अब तक अपनी खोज के दौरान अपने जीवन से जुड़े सवालों के जो भी जवाब मिले थे उनपर पर ही इनके मन मे कई सारे सवाल उठने लगे थे।

10 साल तक कई सारे सामाजिक और पर्यावरण के मुद्दों पर बेहद लगन और उग्रता से काम करते हुए शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार पढ़ गयी। अत्यधिक अवसाद की वजह से उनका शरीर और मस्तिष्क ने लगभग काम करना बंद कर दिया और काफी समय तक वे बिस्तर पर ही रहीं।

वे कहती है कि “ मैं एक आम लड़की जो की इस पितृसत्तामक समाज से अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रही थी, से कब एक उग्र और विद्रोही एक्टिविस्ट बन गयी मुझे पता ही नहीं चला। मैंने दस सालों तक कई लोगों, संस्थाओं, आंदोलनों के साथ मिलकर काम किया जो मुझे यकीन दिलाते थे की दुनिया बदल सकते है पर हकीकत में उनके मूल्यों के साथ मेरा कोई तालमेल नहीं था। कई सारे विरोध प्रदर्शनों मे भाग लेते-लेते मैं थक गयी थी। मुझे पता नहीं चला की कब मैं मेरे भीतर बैठी असली संगीता से दूर होती चली गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि मैं मानसिक और शारीरिक रूप बेहद बीमार हो गयी। यह वो वक़्त था जब मेरी ज़िंदगी ने एक अहम मोड लिया। इस वक़्त में, मैंने अपना खयाल रखते हुए अपनी ज़िंदगी से मिली शिक्षाओं पर गौर करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ना शुरू किया। मैं प्रकृति को करीब से महसूस करने व समझने के लिए बागवानी करने लगी थी जो अब मेरा जुनून बन गया है। कुछ सालों बाद जब मैं माँ बनी तब से मैं बच्चों के पालन-पोषण की नैसर्गिक प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रही हूँ। साथ ही में ज़िंदगी को करीब से देखने की कोशिश कर रही हूँ और अपने आप के भीतरी सत्य के साथ लगातार जुड़े रहने की कोशिश कर रहीं हूँ।

एक साल पहले हम चेन्नई से तिरुवन्नामलाई आ गए थे जहां मेरा सपना है कि एक ऐसा समुदाय बनाया जा सकें जहां लोग प्रकृति के बीच मे रहकर अपना जीवनयापन कर सकें और अपने जीवन को आध्यात्म की ओर मोड सकें। जहां लोग अपने आप से जुड़कर अपने भीतरी सच को जानने की अनवरत कोशिश करते रहे, जहाँ लोग सहयात्री बनकर एक-दूसरे के विकास मे सहायक बन सकें। जहाँ लोग सीखने से और खुद से सवाल करने से न डरे।

वे आगे कहती है कि “मेरी खुद की ज़िंदगी सवालों से भरी पड़ी हुई है। इन सवालों की वजह से मैं आज इस जगह पर खड़ी हूँ। इन सवालों ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है, इनके जवाब हर बार एक नया सवाल छोड़कर जाते रहे है, जिनहोने मुझे हर बार एक नयी खोज के लिए प्रेरित किया है।” इसी खोज के चलते तिरुवन्नामलाई आने से पहले हमने चेन्नई मे एक ReStore के नाम से एक सामुदायिक जगह शुरू करी थी जहां ऐसे लोग सादगीपूर्ण जीवन की इच्छा रखने वाले लोग साथ मिलकर अपने जीवन की कहानियाँ सांझा करते थे। कहने को तो यह एक रीटेल स्टोर था जहां ओरगनिक सामान मिलता था पर इसका मूल उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा लोगों को विकास से जुड़े हुए जमीनी मुद्दों से जोड़ना था। इसी बीच संगीता की पहली किताब भी छप गाय थी जोकि हरित क्रान्ति पर उनके लिखे हुए कुछ लेखों का संकलन था।

अपनी ज़िंदगी को सहज बनाने की इस यात्रा मे संगीता अभी भी उन मुद्दों के साथ जुड़कर काम कर रही है पर उनका काम करने का तरीका बदल गया है। अब वे एक उग्र एक्टिविस्ट से एक आध्यात्मिक एक्टिविस्ट बनने की दिशा मे अपने कदम बढ़ा रही है।

यह एक आम औरत की कहानी हैं, जो अपने अस्तित्व को खोजते हुए प्रकृति के करीब आती गयी क्योंकि प्रकृति भी एक नारी, एक माँ है…जो जन्म देती है, जो पालन-पोषण करती है…जो अपने बच्चों से प्यार करती है।

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