अन्वेषक: श्वेता भात्ताद
व्यवसाय: कलाकार
स्थान: नागपुर,महाराष्ट्र

कला/आर्ट एक तरीका है जिसके माध्यम से हम, हमारे अनुभवों को दुनिया के सामने रचनात्मक तरीके से अभिव्यक्त कर सकते है। यह वो तरीका है जिसके माध्यम से एक कलाकार दुनिया को वो दिखाता है जो वो देख नहीं पाती है। जिसके माध्यम से वह कही किसी कोने मे दबी हुई किसी सामूहिक भावना को एक स्वरूप देता है। कला एक जादू है, एक सपना है, परिवर्तन का, एक नयी दुनिया का। हजारों सालों का हमारा इतिहास गवाह है, परिवर्तन के हर दौर मे कला और कलाकारों ने इस दुनिया को एक नया स्वरूप देने मे एक अहम भूमिका निभाई है। एक कलाकार हमेशा से ही आज़ाद सोच का मालिक होता हैं। अपनी सोच और अपने काम से भी हमेशा ही से लोगों को आज़ादी का अनुभव कराता है। उसके लिए आज़ादी के मायने शारीरिक नहीं होते है। वह मानसिक आज़ादी की बात करता है। उसके लिए किसी इंसान के कत्ल करने से भी बड़ा गुनाह इंसान की सोच का कत्ल करना है। क्योंकि वो जनता है की जब इंसान की सोच का कत्ल हो जाता है तो वो एक पालतू जानवर के समान व्यवहार करने लगता है जहाँ उसकी अपनी कोई सोच नहीं होती हैं, होती भी है तो उसे वो अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। इसीलिए कहीं न कहीं हर कलाकार एक लड़ाई लड़ रहा है, वैचारिक अभिव्यक्ति की आज़ादी की। और जब अपनी इस लड़ाई मे जब समाज को जोड़ देता है तब शुरुआत होती है बदलाव की। हमारे अगले परिंदे की भी कहानी कुछ इसी तरह की है जहाँ वे अपनी कला और अभिव्यक्ति की क्षमता का प्रयोग विभिन्न सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूकता जगाने और किसानों को उनके अधिकारों को दिलवाने के लिए कर रही है।

श्वेता के पिताजी अपने बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए अपनी खेती को छोड़कर कई वर्षो पहले नागपुर मे आकार बस गए थे। पर कहीं न कहीं खेती के प्रति उनके लगाव ने उन्हे अपने गाँव से जोड़कर रखा हुआ था। बचपन मे जब भी श्वेता अपने पिता जी के साथ गाँव जाया करती थी तो देखती थी की उनकी और उनके गाँव के दोस्तों की परवरिश मे बेहद फर्क है। जब वो उनके घर जया करती थी तब अक्सर वो देखती थी की उनके घर मे खाने के लिए पर्याप्त अनाज भी मौजूद नहीं है। तब उनके मन मे हमेशा यह सवाल आता था की ऐसा क्यों है? जबकि किसान जो की खुद अनाज उगता है, लोगों का पेट भरता है उसके पास ही खाने के लिए पर्याप्त अनाज नहीं है। उस वक़्त उन्हे यही लगता था की किसानों को शायद अपने संसाधनों का प्रबंधन करना नहीं आता है।

खैर वक़्त बीतता गया और उनका वक़्त पढ़ाई मे गुजरता गया जो उन्हे बचपन से ही पसंद नहीं थी। वे बताती है की जब बचपन मे उनके पिताजी उन्हें स्कूल छोड़ने जाया करते थे तब अक्सर भाग के घर में या पड़ोसियों के यहाँ छूप जाया करती थी। शायद इसी वजह से वे बारहवीं मे फ़ेल हो गयी थी। पर वे इस बात से खुश हैं क्योंकि ये वो वक़्त था जब उनके भीतर बचपन से पल रहे कला के बीज का अंकुरण हुआ और उन्होने खुद को पहचाना। इस के बाद उन्होने फ़ाईन आर्ट्स मे स्नातक और उच्च स्नातक की डिग्री ली। पर कॉलेज मे भी उन्हे शिक्षा मे वही समस्या दिखी जिसकी वजह से वे बचपन मे स्कूल से दूर भागती थी। इसी दौरान उनकी मुलाक़ात कुछ ऐसी लड़कियों से हुई जिनके साथ बचपन मे यौन उत्पीड़न हुआ था। उनकी कहानियाँ को सुनने के बाद उन्हे अपने बचपन मे हुई कुछ घटनाओं से उनका एक बार फिर सामना हुआ। तब उन्हे लगा की उन्हे अपनी कला के माध्यम से इन समस्याओं के लिए कुछ करना चाहिए। धीरे-धीरे उन्होने कुछ परफॉर्मन्सेस डिज़ाइन किए और कही अलग-अलग जगहों पर प्रदर्शित किया। कॉलेज के बाद उन्होने कई आर्ट रेसिडेंसीस एटेंड करी जो की कई छोटे-छोटे गांवों मे आयोजित हुई थी। तब उन्हे एहसास हुआ की किस तरह कला एक व्यापक बदलाव मे अहम भूमिका निभा सकती है और लोग को एक साथ लेकर आ सकती है। इसी दौरान उनका अपने गाँव आना-जाना लगा रहता था। अपनी गाँव की हर यात्रा के दौरान वे यह सोचा करती थी की उन्हे अपने गाँव के लिए कुछ करना है पर उन्हे नहीं पता था की वे क्या कर सकती है। इन आर्ट रेसिडेंसीस ने उन्हे एक रास्ता दिखाया जिसके माध्यम से वे अपने गाँव के लिए कुछ कर सकें। अपने गाँव वापस आने के बाद उन्होने गाँव मे कुछ आर्ट रेसिडेंसीस का आयोजन किया। जिनके माध्यम से उन्होने स्वच्छता, शिक्षा जैसे मुद्दे गाँव के लोगों सामने रखे और गाँव के युवाओं को अपने साथ जोड़ा। इसी दौरान उन्हे पाया की गाँव का युवा आज खेती नहीं करना चाहता है और जो लोग खेती कर रहे है उन्हे भी अब खेती और अपनी जमीन से कोई खास लगाव नहीं रहा है। उन्हे एक बार पिताजी का चेहरा याद आ गया, किस तरह वे भी अपनी खेत और गाँव को छोड़कर शहर मे आकार बस गए थे। तब उन्होंने किसानों की समस्याओं और खेती को और समझना शुरू किया। यह सब करते-करते उन्होने खुद खेती करनी सीखी। साथ ही मे उन्होने किसानों की समस्याओं को लेकर कुछ परफॉर्मन्सेस डिज़ाइन किए। इस दौरान उन्हे पेरिस मे क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस मे प्रदर्शन करने का मौका मिला। वहीं पर उनकी मुलाक़ात कई देशों के किसानों से हुई तो उन्हे पता चला की दुनिया के हर कोने मे किसानों की समस्याएँ एक समान है। भू-माफिया यहाँ पर भी है और वहाँ पर भी, यहाँ पर भी हमारी सरकार को किसानों की कोई परवाह नहीं है और वहाँ पर भी। किसान भारत मे भी आत्महत्याएँ कर रहे है और यूरोप मे भी।

वे कहती है की “किसान किस हद तक समस्याओं से गुजर रहे है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हो की आज भारत मे हर रोज़ 2,500 किसान खेती छोड़ रहे है और इस साल अब तक महाराष्ट्र मे 124 किसान आत्महत्याएँ कर चुके है। यही हालत रहे तो एक वक़्त यह भी आएगा इस कृषि प्रधान देश मे एक भी कृषक नहीं होगा। शायद तभी हम हमारे किसानों का महत्व समझ पाएगे। क्योंकि तब हमारे पास भी उनकी तरह खाने के लिए अनाज नहीं होगा।

मुझे लगता है कि वास्तव में भोजन हमारे लिए एक राजनीतिक, समावेशी, और मौलिक वस्तु है। इसलिए हमने गाँव मे एक लैण्ड आर्ट प्रोजेक्ट चालू किया है। जिसमे हम किसानों के साथ मिलकर उनकी जमीन पर एक चित्र के आकार मे बीज बोएँगे जो की कई प्रकार के होंगे। जब फसल होगी तब उसमे कई रंग होंगे और किसान का खेत एक चित्र के रूप मे दिखेगा। मुझे लगता है की यह लोगों को भूमि के साथ फिर से जोड़ने का एक दिलचस्प और आकर्षक तरीका है। मेरे काम के बारे मे जब लोग मुझसे पूछते है की भूमि के साथ हमारा क्या रिश्ता है? जाहिर है कि इसके कई आयाम हो सकते है लेकिन अगर हम हमारी संस्कृति की जड़ों मे जाकर देखे तो हमे एक ही शब्द मिलता है वो है कृषि। और कृषि का संबंध सिर्फ भोजन से नहीं है। यह हमारे पूरे पारिस्थितिक तंत्र को मजबूत बनाए रखने के लिए आवशयक है। इसके लिए जरूरी है की हम हमारे किसानों को पूरा सम्मान दे और और उनके महत्व को समझे तभी हम कृषि का बचा पाएगे।”

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