अन्वेषक: तिरुमुरुगन और शिवराज
वव्यवसाय: प्राकृतिक रंगरेज
स्थान: इरोड, तमिलनाडु

प्राचीन काल से हमारे कपड़ों को प्राकृतिक तत्वों जैसे खनिज, पौधों और फूलों से रंगा जाता था। वास्तव में, रंगाई ऐतिहासिक दृष्टि से एक खूबसूरत कला का रूप था। इस कला ने अपना स्वरूप तब खोना शुरू किया, जब 1856 मे वैज्ञानिकों ने कृत्रिम रंग बनाने के तरीकों की खोज की थी। विभिन्न रसायनों के प्रयोग से वैज्ञानिकों ने कई नए रंगो को ईज़ाद किया जो लोगों को आकर्षित करने मे कामयाब रहे, वहीं इन कृत्रिम रंगों ने कपड़ा बनाने की लागत को भी कई प्रतिशत कम कर दिया।

इन नए रंगों ने कपड़ा उद्योग को पूरी तरह से बदल कर रख दिया था। इसी वजह से कपड़ा उद्योग मे प्राकृतिक रंगो का प्रयोग प्रचलन से बाहर होता गया। लेकिन लंबे समय से इन कृत्रिम रंगों के हमारे पर्यावरण और सेहत पर विपरीत परिणाम देखने को मिल रहें है। मनुष्यों की सेहत की बात करें तो इन कृत्रिम रंगों से सबसे ज्यादा प्रभावित वे लोग होते है जो इन कपडो को  रंगने का काम करते है। कपड़ा फैक्टरियों मे रंगाई का काम करने वाले मजदूरों को बेहद कम भुगतान पर जहरीले वातावरण मे काम करना पड़ता है।

मैं यह बात इसलिए भी जानता हूँ क्योंकि अपने कॉलेज के समय मे मैंने कुछ समय के लिए एक कपड़ा बनाने वाली कंपनी मे काम किया था और जब भी मुझे कपड़े की रंगाई की इकाई मे जाना पड़ता था मैं बस वहाँ से भागने के बारे मे सोचता था। उस दुर्गंध भरे माहौल मे मेरे लिए 5 मिनिट खड़ा रहना दूभर हो जाता था और सैकड़ों लोग उस माहौल मे रोजाना 8-10 घंटे काम करते थे।

हालांकि मुझे इससे हमारी सेहत पर पढ़ने वाले विपरीत असर के बारे मे काफी समय बाद पता चला। एक शोध के मुताबिक रासायनिक रंगाई का कार्य करने वालों मे ट्यूमर का खतरा अधिक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, इन कारखानों के कर्मचारियों के बीच होने वाली मौतों मे कई तरह के कैंसर, cerebrovascular रोग, फेफड़ों के रोग से मरने वालों की संख्या 40 गुना अधिक है।

हमारे अगले परिंदों तिरुमुरुगन और शिवराज भी इरोड मे ऐसे ही एक कपड़े के कारखाने मे काम करते थे। कई सालों तक वहाँ काम करने की वजह से उनकी सेहत पर कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगे थे। जब वे इलाज़ के लिए चिकित्सकों के पास गए तो उन्होने दोनों को अपना कार्यक्षेत्र बदलने का सुझाव दिया । उसी समय वे इरोड मे रसायनिक रंगाई की वजह से वहाँ के जल स्त्रौतों पर होने वाले नुकसान के विरोध मे काम करने वाले कुछ सामाजिक संघठनों के संपर्क मे आए थे। इन संघठनों के संपर्क मे आने की वजह से उन्हे ज्ञात हुआ की रासायनिक रंगाई से सिर्फ उनकी सेहत को ही नहीं अपितु पूरे पर्यावरण को बेहद नुकसान हो रहा है। तब उन्होने इस विषय पर और शोध करना शुरू किया और इसके विकल्प खोजने में लग गये। इसी दौरान उन्होने प्रकृतिक रंगाई के बारे मे जाना और डिंडगल के गांधीग्राम मे जाकर प्राकृतिक रंगाई के विषय पर गहराई से अध्ययन किया और वृक्षाटोन नाम से इरोड मे प्राकृतिक रंगों से कपड़े कि रंगाई का एक छोटा सा उपक्रम शुरू किया।

तिरुनुरुगन बताते है कि “जब हम डिंडगल मे अध्ययन कर रहे थे तब हमे पता चला कि रसायनिक रंग सिर्फ कारखानों मे काम करने वाले मजदूरों कि ही सेहत खराब नहीं करते है अपितु उन कपड़ों को पहनने वाले लोगों पर भी इसका बुरा प्रभाव डालते है। मैं शर्त से कह सकता हूँ कि लोगों ने कभी इस बारे मे सोचा ही नहीं होगा की हमारे कपड़े भी हमारे लिए जहर का काम कर सकते है। हम अपने घरों चाहें कितना भी जैविक खाने का प्रयोग करलें, पर हम अभी तक इस भ्रम मे जी रहे है कि कृत्रिम रंगों से बने हमारे कपड़े हमारे लिए सुरक्षित है। पर हकीकत यह है कि हमारे कपड़े कई प्रकार के जहरीले व अदृश्य रसायनों का घर है। आज हमारा कपड़ा उद्योग जो कि 7 ट्रिल्यन डॉलर से भी अधिक का है वो कपड़ा बनाने के लिए 8000 से अधिक जहरीले रसायनों का प्रयोग करता है। यह रसायन सीधे हमारी त्वचा के संपर्क मे आते है। इसकी वजह से बांझपन, सांस कि बीमारियाँ, चरम रोग, कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा हमारे जीवन मे कई प्रतिशत तक बढ़ जाता है। हम जितना इन कपड़ों का प्रयोग करेंगे, उतना ही इन जहरीले रसायनों का हमारे शरीर मे पहुँचने का जोखिम बढ़ता जाएगा और हमारा शरीर बीमारियों का घर बनता जाएगा।”

वहीं शिवराज कहते है कि “लगभग हर औद्योगिक रंगाई कि प्रक्रिया में पानी में कई प्रकार के रसायनो को मिलाया जाता है। कपड़े को रंगने के बाद गंदे पानी को सीधे नदी और नालों मे छोड़ दिया जाता है क्योंकि पानी फिर से उपयोग मे लाने की लागत बहुत ज्यादा है। हर साल वैश्विक कपड़ा उद्योग 40 से 50 हज़ार टन गंदा पानी नदियों मे छोड़ता है। वहीं प्रकृति रंगो से कि जाने वाली रंगाई मे एक तरफ जहां पानी का प्रयोग अस्सी प्रतिशत तक कम होता है वहीं वह पानी हमारी कृषि के लिए एक वरदान से कम नहीं है क्योंकि उस पानी मे पोटाशियम कि मात्रा अधिक होती है इस वजह से वह मिट्टी के लिए उर्वरक का काम करता है। हालांकि जागरूकता और सरकार दबाव के चलते कई कपड़े के कारखाने पानी मे से रसायन निकालकर उसे नदी मे छोड़ने लगे है पर फिर भी वह पानी पीने लायक बिलकुल नहीं होता है और उस पानी मे से निकले हुए रसायनों के कीचड़ का क्या करना है कोई नहीं जानता है।”

इरोड मे ही जहां हमे कावेरी जैसी नदी का वरदान मिला हुआ है, हमें पानी खरीदकर पीना पड़ता है क्योंकि ज़मीन से निकले पानी मे कई प्रकार के जहरीले तत्व पाये जाते है और किनारो के आस-पास तो पानी कई रंगो का मिलता है। उस पानी को देखने के बाद यही लगता है कि अभी-अभी इस पानी से किसी ने होली खेली है।

वे आगे जोड़ते हुए कहते है कि हमारी प्रकृति कई खूबसूरत रंगो से भरी पड़ी है। अगर हम उसे सही तरीके से समझे और उसका सम्मान करे तो ऐसे कई तरीके मौजूद है जिनसे हम प्राकृतिक तत्वों का प्रयोग करते हुए कई सारे रंग बना सकते है व उनसे रंगाई भी कर सकते है।

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