अन्वेषक: दिनेश गुर्जर
व्यवसाय: जैविक खेती
स्थान: जोधपुर ,राजस्थान

मानव सभ्यता के आरंभ से ही अपराध मानव के मानस की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति पायी गयी है। अपराध आज भी हो रहे है और हजारो साल पहले भी हो रहे थे। अपराध और अपराधियों पर हमारा समाज कई हजारों सालों से शोध करता आ रहा है। पर अभी तक कोई यह नहीं बता पाया की एक इंसान अपराधी क्यों बनता है। कुछ सिद्धांतों के अनुसार आपराधिक प्रवृति हमारे खून मे पायी जाती है तो कुछ सिद्धांतों के अनुसार एक अपराधी का जन्म उसके आस-पास बिगड़े हुए सामाजिक वातावरण और उसकी परिस्थितियों के आपसी सम्बन्धों से होता है। आज हम 21 वीं सदी में आ गए है जहां हमारे शोधकर्ताओं ने अपराध के कारणों को खोजने मे बेहद प्रगति कर ली है। पर न तो कभी अपराध मुक्त दुनिया थी और न ही होगी। जरूरी है की हम अपराधों के कारण को जाने और मानव मे पायी जाने वाली उन प्रवृतियों को एक बेहतर दिशा दे सकें जिससे हम इस दुनिया को और खूबसूरत बनाने की दिशा मे अपने कदम बढ़ा सकें।

अच्छा-बुरा सब मे होता है पर जरूरी है की हम हमारे अच्छे पक्ष के साथ-साथ हमारे बुरे पक्ष को भी उतने ही प्यार से स्वीकार करें। तब ही हम, हमारी अंदर की बुराई पर विजय पा सकते है और उसे खुद पर हावी होने से रोक सकते है।

आप सोच रहे होगे की मैं यह सब क्यो कह रहा हूँ?

हमारे अगले परिंदे, दिनेश गुर्जर का जीवन ज़्यादातर उन कामों को करते हुए बीता जिन्हे समाज, अपराध की संज्ञा देता है। एक वक़्त था जब वो आपराधिक जगत के उभरते हुए सितारे हुआ करते थे। वे इस समाज के लिए खलनायक थे। उन्होने नशे से लेकर अवैध हथियारों तक का कारोबार किया। वे गैर इरादतन हत्या के जुर्म मे 14 वर्ष का कारावास भोग चुके है। वे बताते है की “जब मैं छोटा था तभी से ही स्कूल मे, जातिगत गुटों के बीच टकराव को होते देखा करता था। जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मुझ मे भी वो स्वभाव आने लगा था और मारपीट, गुंडागर्दी मेरे लिए आम बात हो गयी थी। इसी के चलते 1970 मे सोलह साल की उम्र मे मुझ पर पहला मुकदमा हुआ था। पर जब भी पेशी का वक़्त आता, मेरी जगह कोई और हाजरी भर के आ जाता था। इसी वजह से मुझमे जो थोड़ा बहुत डर था वो भी निकल गया था। क्योंकि मुझे मालूम पड़ गया था की कानून से कैसे खेलना है? और कैसे बचना है? इसी की वजह से मेरी दबंगई बढ़ती चली गयी और मुझ पर पचासों मुकदमे और हो गए।”

इसी दबंगई के चलते 1986 मे उनसे एक व्यक्ति की हत्या हो गयी। और इस बार वो कानून से नहीं बच पाये। साढ़े चार साल केस चलने के बाद उन्हे उम्र कैद की सज़ा हो गयी। पर वो एक साल बाद ही कारगार से फरार हो गए और पुलिस से बचने के चक्कर मे वो अपराध के दलदल मे फसते चले गए। अपराध की राह का यह सफर उन्हे मुंबई तक ले गया जहां वे अंडरवर्ल्ड के साथ मिलकर अवैध हथियारों और नशे का कारोबार करने लगे। इस दौरान वे कई बार पकड़े गए पर अपनी पहचान बदलने की वजह से वे हर बार बचके निकल गए। वर्ष 2001 मे जब वो एक बड़े केस मे फँस गए और उनके बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बचा तब उन्होने अपनी सज़ा पूरी करने का निश्चय कर लिया था।

इसी दौरान तिहाड़ जेल मे उन्हे आर्ट ऑफ लिविंग का मेडीटेशन का कोर्स करने का मौका मिला। एम॰ए और होटल मेनज़मेंट की डिग्री धारक दिनेश गुर्जर बताते है कि “ आधुनिक शिक्षा मे आपको अपने बारे मे सोच-विचार करने की प्रक्रिया ही गायब है। जबकि यह शिक्षा का अभिन्न अंग है। यदि आप अपनी क्रिया-प्रतिक्रियाओं को नहीं देख पाओगे तो आप कैसे जान पाओगे की आप किस दिशा मे बढ़ रहे हो। यही मेरे साथ हुआ, मैंने कभी सोचा ही नहीं की मैं किस दिशा मे बढ़ रहा हूँ। जो कुछ मेरे सामने आया मैं उसे करता चला गया। बिना यह सोचे कि क्या सही और क्या गलत है? परंतु आर्ट ऑफ लिविंग ने मुझे यह मौका दिया की मैं अपने बारे मे सोच सकूँ। और मैं जेल मे होने वाले वाले आर्ट ऑफ लिविंग के हर कोर्स मे यथासंभव शामिल होने की कोशिश करने लगा।”

अपनी इन्ही कोशिशों को एक कदम आगे ले जाते हुए दिनेश गुर्जर 2011 मे जेल से रिहा होने के बाद आर्ट ऑफ लिविंग के टीचर बन गए। और लोगों के जीवन मे एक सार्थक बदलाव लाने की कोशिश करने लगे। 2014 के आरंभ मे आर्ट ऑफ लिविंग के ही एक सत्संग में उन्हे मालूम पड़ा की योग और ध्यान से हम जितने टोकसीन्स को अपने शरीर से निकालते है उतना ही रोज़ हम, हमारे भोजन के द्वारा फिर अपने शरीर मे डाल रहे है। और जिस प्रकार का हमारा भोजन होता है हमारे विचार भी उसी तरह के होने लगते है। आज हमारा भोजन ही हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है। वे कहते है की ” अच्छा सब खाना चाहते है पर उगाना कोई नहीं चाहता है। यहा तक की किसान भी, सरकार और बड़ी कंपनियों द्वारा फैलाये गए इस भ्रमजाल मे फँसा हुआ है कि जैविक उगाकर वो कमा नहीं पाएगा और अपने परिवार का पोषण नहीं कर पाएगा। इसी भ्रमजाल को तोड़ने के लिए मैंने तय कर लिया कि मैं जैविक खेती करूंगा। उसके माध्यम से बेहतर आजीविका कमा कर किसानों के समक्ष उदाहरण पेश करूंगा की आप जैविक खेती के माध्यम से न सिर्फ बेहतर आजीविका प्राप्त कर सकते है अपितु खुद की, लोगों की और इस धरती की सेहत का ख़याल रख सकते है।”

अपनी इसी कोशिश के चलते वे किसानों को जागरूक कर रहे है और उनका प्रयास है की 2016 के अंत तक वे किसानों से एक हज़ार बीघा मे जैविक खेती करवाने लग जाए। इसका कुछ असर उनके आस-पास दिखने भी लगा है। उनके पड़ोसी भी रसायनों को त्याग कर जैविक खेती की तरफ मुड़ गए है।

वे कहते है की “सफर लंबा और कठिन है, पर मैंने अपना जीवन अब तक जो जिया है उसमे अपना शत-प्रतिशत दिया है चाहे वो अपराध ही क्यो न हो, तो फिर यह तो वो काम है जो आज की पीढ़ी के लिए जरूरी है। यही वो आधार है जिस पर आने वाली नस्लों का भविष्य निर्धारित है, तो इसमे क्यों नहीं। और मुझे यकीन है की मैं अपने लक्ष्य को पाने में सफल होऊंगा।”

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