हमारे अगले परिंदे अरूप रक्षित, बॉटनी मे उच्च स्नातक की पढ़ाई करने के बाद, हावड़ा के एक सरकारी स्कूल मे शिक्षक के तौर पर कार्य कर रहे थे। चूंकि उनकी पेड़-पौधों के विषय मे रुचि थी वे भारत मे पाये जाने वाले औषधीय वनस्पतियों पर शोध कर रहे थे। शोध के दौरान उनका इस कड़वी सच्चाई से सामना हुआ कि हमारे देश की इन अनमोल वनस्पतियों का आधुनिक विज्ञान की वजह से उचित प्रयोग नहीं हो पा रहा है। इनके प्रयोग करने का जो अनमोल ज्ञान है वो लुप्त हो रहा है, क्योंकि आधुनिक शिक्षा शहरों के लिए बनी है और यह सारा ज्ञान गाँवों मे छिपा हुआ है। इस ज्ञान का शहरी शिक्षा मे कोई मूल्य नहीं है। इसी छुपे हुए ज्ञान को समझने के लिए अरूप जी ने अपनी पत्नी रूबी और अपनी बेटी के साथ कई गांवो की यात्रा की, कई मेलों मे गए और गाँव के गुनिजनों के साथ मिलकर काफी समय तक इस पर शोध करते रहे। ऐसे ही एक मेले का भ्रमण करते वक़्त उनकी मुलाक़ात एक मसलिन कपड़ा बुनने वाले बुनकर से हुई। मसलिन की बुनाई जो की लगभग भारत से लुप्त हो गयी है, उसकी कपड़े की खूबसूरती को देखकर अरूप जी और रूबी जी बेहद प्रभावित हुए परन्तु बुनकर से बातचीत के दौरान उन्हे पता चला की उनकी इस कला का बाज़ार मे कोई कदरदान नहीं है। उसका कोई खरीददार नहीं है और यही हाल लगभग सभी तरह के हस्तनिर्मित कपड़ों का है। तब वे सोच मे पड़ गए कि इतने खूबसूरत कपड़े का आखिर बाज़ार क्यों नहीं है, इसके खरीददार इतने कम क्यों है। तब वे बुनकरों के साथ जुड़कर उनके लिए काम करने लगे।

अरूप जी बताते हैं कि जब हम खादी और हस्तनिर्मित कपड़े के बाज़ार और इस उद्योग कि अर्थव्यवस्था को समझने कि कोशिश कर रहे थे तब हमें पता चला कि बड़ी-बड़ी दुकानों में जो हस्तनिर्मित कपड़ा बिकता है वो बहुत ही महंगा है इस वजह इसके खरीदार एक सीमित वर्ग के लोग ही है और इसीलिए इसकी बिक्री बेहद कम है। वही दूसरी तरफ ये बीचोलिए है, जो इस कपड़े को 10 गुणी कम कीमत मे बुनकरों से खरीदते है और उसका भुगतान भी साल मे एक बार पूजा, ईद या दिवाली के समय पर ही करते है। ऐसे मे बुनकरो को लगातार कपड़ा बुनना भी हो तो उसके पास पर्याप्त पूंजी नहीं होती है और वो महाजनों और साहूकारों के चंगुल मे फंस जाता है। ऐसे हालातों मे उसके लिए यही बेहतर होता है कि वो बुनाई का काम छोड़कर मजदूरी करे जिससे उसकी नियमित आय का एक स्त्रौत बना रहता है।

अरूप जी आगे कहते है कि यह समस्या सिर्फ बुनकरों कि ही नहीं है। अगर हम गहराई से इस बात को समझे तो हम जान पाएंगे कि इसके सहारे पूरा गाँव का और कई लघु उद्योगों का अरहतीक ढांचा खड़ा हुआ है। किसान, कताई करने वाली औरते, रंगरेज, दर्जी आदि कई समुदाय इस समस्या के शिकार है। बाज़ार मे बिकने वाले हस्तनिर्मित कपड़े का सिर्फ 10 प्रतिशत ही इन लोगों के पा

स पहुँच पाता है। यही पैसा अगर शहर जाने कि बजाय अगर गाँव मे ही रहे तो गांव के लोगों को शहर जाकर के मजदूरी नहीं करनी पड़ेगी।

पावर लूम और नयी तकनीकों के आजाने की वजह से कपड़े के उत्पादन कि लागत पैसों के हिसाब से बेहद कम हो गयी है पर हकीकत मे ऐसा नहीं है। हमे यहाँ लागत और उत्पादन के खेल को समझना पड़ेगा, यहाँ हमे इस बाज़ारवादी व्यवस्था के पूरे खेल को समझना पड़ेगा, हमे मुद्रा पर आधारित पूरी अर्थव्यवस्था को समझना पड़ेगा तब जाकर के हम मशीनों से बने रेडीमेड कपड़ों की असली लागत को समझ पाएंगे। सिर्फ कपड़ा ही नहीं एक आम शहरी द्वारा प्रयोग कि जा रही हर वस्तु की लागत का सही अनुमान हम तब तक नहीं लगा सकते है जब तक हम इस अर्थव्यवस्था की जड़ों को नहीं समझेंगे। हम सिर्फ बड़ी कपड़ा कारखानों के निवेश को ही देखे तो वो करोड़ों मे होता है। चूंकि मशीनों कि वजह से कपड़े उत्पादन कई गुना बढ़ गया है। इन कारखानों के मालिक वो ही लोग है जिनहोने हजारों सालों बुनकरों से बना कपड़ा शहरों मे ऊंचे दाम पर बेचकर मुनाफे का 80 प्रतिशत हिस्सा अपने पास रखा है। अब चूंकि मशीनें आ गयी है तो इन्हे बुनकरों की जरूरत नहीं, बुनकर नहीं होंगे कताई नहीं होगी, कताई नहीं होगी तो किसान अपना कपास सिर्फ इन कंपनियों को ही बेच सकता है। चूंकि खरीदने वाला सिर्फ एक ही वर्ग है और उसका उद्देश्य सिर्फ मुनाफा कमाना है तो वह कम से कम दाम मे ज्यादा माल खरीदने की कोशिश करता है और गाँव के इन हुनरमंद कारीगरों के पास काम नहीं है तो वह शहर के इन कारखानों मे अपने श्रम को बेहद सटे डैम पर बेचने को मजबूर हो जाते है। ऐसे मे लागत तो कम होगी ही और इसका फायदा सिर्फ दो तरह के लोगों को मिलता है एक है पूंजीपति जो यह कपड़ा बना रहा है और दूसरा आम शहरी उपभोक्ता जो इतना असंवेदनशील हो गया है की उसे अपने स्वार्थ के सिवा कुछ नहीं दिखता है।

रूबी जी आगे कहती हैं कि शहरी उपभोक्ता इस बात से नावाकिफ़ है की जिस कपड़े को वो बेहद सस्ते दाम मे खरीद रहा है उसकी कीमत आज कोई और चुका रहा है और कल उसे भी चुकानी पड़ेगी। क्योंकि जिस तरह से यह कपड़ा बन रहा है, उसमे इतने जहरीले रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है कि धीरे-धीरे शरीर बीमारियों का घर बंता जा रहा है। आज स्त्रियों मे स्तन कैंसर वृहद स्तर पर फ़ेल रहा है उसका एक बड़ा कारण यही आधुनिक मशीनों से निर्मित कपड़ा है वही दूसरी तरफ पुरुषों मे जो नपुंसकता की समस्या बढ़ रही है उसका भी बड़ा कारण यही है। इन बीमारियों के इलाज़ मे लगने वाले खर्च को अगर हम इस कपड़े की लागत मे जोड़े तो यह कपड़ा हमारे लिए बेहद महंगा है। बाकी इससे  हमारे पर्यावरण को हो रहे दुष्प्रभावों की बात करें तो इस कपड़े की लागत का अनुमान पैसों मे तो लगाना असंभव है। वहीँ दूसरी तरफ हस्तनिर्मित कपड़ा न सिर्फ सीधे तौर पर हमारी प्रकृति से जुड़ा हुआ है अपितु इसकी वजह से समाज के कई तबकों को एक सम्मानजनक रोजगार भी उपलब्ध होता है।

इसीलिए हम एक तरफ देशभर मे भ्रमण करते हुए शहरी उपभोक्ताओं को हस्तनिर्मित कपड़े के प्रति जागृत करने का प्रयास कर रहे है कि वो ज्यादा से ज्यादा बुनकरो द्वारा बुने हुए कपड़े को अपने जीवन मे जगह दे वही दूसरी तरफ हमारी कोशिश है कि हम शहरी उपभोक्ता और बुनकर के बीच की जो खाई है उसे कैसे कम किया जा सके। इसके लिए हम कई तरह की प्रदर्शनियों मे हमारे बुनकरों को लेकर जाते है और उन्हे उपभोक्ता से सीधा संपर्क करने का मौका मिलता है जिससे बुनकरों को भी पता रहता है कि उनका कपड़ा कितने मे बिका है और उनके पास कितना पैसा आया है। हमारी इसी कोशिश के फलस्वरूप हम जिन बुनकरों, दर्जियों, कातकरियों, किसानों के साथ काम कर रहे है, मुनाफे का 80 फीसदी हिस्सा उन्ही लोगों के पास जा रहा है। जिससे ना सिर्फ इनकी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे ही सही पुनः पटरी पर लौट रही है अपितु इन्हे साहूकारों के चंगुल से भी छुटकारा मिल रहा है।

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