अन्वेषक: मंसूर खान

व्यवसाय: शोधक

स्थान: कूनूर

बॉलीवूड के एक सफल निर्देशक मंसूर खान, जिन्होंने कयामत से कयामत तक, जो जीता वहीं सिकंदर जैसी सफल फिल्मों का निर्देशन किया है, आजकल नीलगिरी की पहाड़ियों के बीच  बसे एक छोटे से, पर खूबसूरत क़स्बे कूनूर मे अपना जीवनयापन कर रहें है। जब मैं उनसे मिला तो मेरा पहला सवाल यहीं था की क्या वजह है कि वे बॉलीवुड कि चमचमाती दुनिया को छोड़कर इन पहाड़ों मे आकर क्यों बस गए है?

वो कहते है कि “ मैं कभी भी फिल्म जगत का हिस्सा नहीं बनना चाहता था। मैं हमेशा से जानता था कि मैं शहर कि भागदौड़ से दूर प्रकृति के करीब रहकर अपना जीवन जीना चाहता हूँ। परंतु मैं अपनी शिक्षा पर अपने माता-पिता का काफी पैसा खर्च कर चुका था तो मुझे कहीं न कहीं इस बात कि ग्लानी थी कि मुझे उन्हे साबित करने कि जरूरत है, कि मैं भी जिम्मेदार बन सकता हूँ और पैसा कमा सकता हूँ। तब मैंने अपने भीतर झाँक के देखा तो मैंने पाया कि मेरे भीतर कहीं न कहीं एक कहानीकार छिपा हुआ है। तब मैंने फिल्मों के क्षेत्र में खुद को आजमाने का फैसला किया। पर मुझे यह पता था कि कुछ समय बाद मैं इसे छोड़कर शहर से दूर प्रकृति कि गोद मे जाकर रहने वाला हूँ।

इसके लिए मैंने अलीबाग के पास एक ज़मीन भी ले रखी थी। जब मैं धीरे-धीरे इस तरफ अपने कदम बढ़ा रहा था तब मेरा जीवन को देखने के दूसरे नजरिए से परिचय हुआ और मैंने जाना कि औद्योगिक विकास के इस काल मे उस नजरिए कि हमारी आधुनिक शिक्षा मे कहीं पर भी जगह नहीं है। इसी वजह से मैं ज़मीन पर जाकर बसने कि सोच रहा था लेकिन उसे सरकार ने 30000 हज़ार किसानों कि ज़मीन के साथ एयरपोर्ट बनाने के लिए अधिग्रहित कर लिया था। इस घटना ने मुझे यह सोचने पर मज़बूर कर दिया कि सही मायने मे विकास क्या होता है? जिसे हम विकास समझ रहें है उसके लंबे समय मे क्या प्रभाव या दुष्प्रभाव हमे झेलने होंगे। मैं इस पर बेहद गहनता से शोध करने लगा था।

अपने शोध के दौरान मैंने पाया कि  हमारी शिक्षा कि वजह से आधुनिक विकास कि हमारी जो मान्यताएं बनी है वो हकीकत से बिलकुल विपरीत है। इसने मेरा दुनिया को देखने का नज़रिया पूरी तरह बदल दिया था। इस वजह से मैं 2003 मे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ कूनूर मे आकर रहने लग गया और वही रहकर अपनी शोध करने लगा। मेरी हर एक शोध मुझे दूसरे शोध कि तरफ लेकर जा रही थी। उसी के फलस्वरूप मैं आधुनिक विकास मे ऊर्जा और तेल कि भूमिका को समझ पाया। उसी के फलस्वरूप मेरी पहली किताब “The Third Curve-The End of Growth As We Know It” मैं लिख पाया। यह किताब आधुनिक विकास कि हकीकत बयान करती है, कि कैसे हमें ऊर्जा के सीमित साधनों के दम पर असीमित विकास का झूठा सपना दिखाया जा रहा है। यह किताब बताती है कि ऊर्जा के साधनों का हमारी अर्थव्यवस्था से क्या संबंध है, कैसे कुछ मुट्ठीभर लोग ऊर्जा के सीमित स्त्रौतो का इस्तेमाल करते हुए इस नकली अर्थव्यवस्था को धकेल रहें है और इस प्रकृति को बर्बाद करने पर आमादा है। कैसे हम इस नकली अर्थव्यवस्था मे एक कठपुतली के सिवाय कुछ भी नहीं है, जिसकी डोर किसके हाथ मे है और कौन हमे नचा रहा है इसकी हमे खबर भी नहीं है।”

अपने शोध के दौरान मैंने पाया कि  हमारी शिक्षा कि वजह से आधुनिक विकास कि हमारी जो मान्यताएं बनी है वो हकीकत से बिलकुल विपरीत है। इसने मेरा दुनिया को देखने का नज़रिया पूरी तरह बदल दिया था। इस वजह से मैं 2003 मे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ कूनूर मे आकर रहने लग गया और वही रहकर अपनी शोध करने लगा। मेरी हर एक शोध मुझे दूसरे शोध कि तरफ लेकर जा रही थी। उसी के फलस्वरूप मैं आधुनिक विकास मे ऊर्जा और तेल कि भूमिका को समझ पाया। उसी के फलस्वरूप मेरी पहली किताब “The Third Curve-The End of Growth As We Know It” मैं लिख पाया। यह किताब आधुनिक विकास कि हकीकत बयान करती है, कि कैसे हमें ऊर्जा के सीमित साधनों के दम पर असीमित विकास का झूठा सपना दिखाया जा रहा है। यह किताब बताती है कि ऊर्जा के साधनों का हमारी अर्थव्यवस्था से क्या संबंध है, कैसे कुछ मुट्ठीभर लोग ऊर्जा के सीमित स्त्रौतो का इस्तेमाल करते हुए इस नकली अर्थव्यवस्था को धकेल रहें है और इस प्रकृति को बर्बाद करने पर आमादा है। कैसे हम इस नकली अर्थव्यवस्था मे एक कठपुतली के सिवाय कुछ भी नहीं है, जिसकी डोर किसके हाथ मे है और कौन हमे नचा रहा है इसकी हमे खबर भी नहीं है।” यह सब हमारे कुछ छोटे से प्रयास है जो कि एक आम समझ (कॉमन सैन्स) है। पर यह कहना कि हम ‘Sustainable’ जीवन जी रहे है यह गलत होगा। यह एक बेहद मुश्किल लक्ष्य है। आजकल लोग इस शब्द का प्रयोग बिना इसके सही अर्थ को समझे हुए बेहद आसानी से कर लेते है। जिस दुनिया मे हम जी रहें है वहाँ कुछ भी sustainable हो ही नहीं सकता है। हमने धरती के 15 करोड़ साल मे जमा किए हुए संसाधनों को 150 सालो मे खत्म कर दिया है, उसे हम कैसे sustainable कह सकते है? इसलिए यह जरूरी है कि हम स्वयं को बेवकूफ बनाना बंद करे और इस बात को स्वीकार करे की जिस विकास और असीमित अर्थव्यवस्था कि वृद्धि के सपने हम देख रहें है वो संभव नहीं है।  इस बात को स्वीकार करे, की हम जिस बदलाव के बारे मे  बात कर रहे है वो कभी नहीं आ सकता है। हम एक टाइटेनिक कि सवारी कर रहे है और मैं बस अपनी किताब और अपने व्याख्यानों के माध्यम से यह इशारा करने कि कोशिश कर रहा हूँ कि हम बहुत जल्द उस बर्फ कि चट्टान से टकराने वाले है। पर अगर आप अपने देश मे देखें तो अभी भी यहाँ संभावना मौजूद है क्योंकि अभी भी हमारी आधी से ज्यादा जनता मितव्ययी है, साधनों को संभाल के रखना और उनका पूर्ण प्रयोग करना उनकी आदत मे शुमार है, वे अभी भी काफी हद तक जमीन से जुड़े हुए है। हम अभी संपन्नता के उस भ्रम से काफी दूर है जो ज़्यादातर पश्चिमी देशों कि रगो मे बस गया है बस जरूरत है तो हमे इस काल्पनिक अर्थव्यवस्था और काल्पनिक विकास को समझने और अपने ऊर्जा के साधनों को सहेजने कि।”

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