अन्वेषक: मुज़फ्फर अंसारी आका कल्ले भाई
व्यवसाय: इतिहासकार
स्थान: चंदेरी,मध्यप्रदेश

कहने को तो यह कहानी कल्ले भाई की है पर असल मे यह कहानी उन सभी छोटू की है, जो बचपन की कच्ची उम्र मे इतने पक्के हो जाते है की वो अपना और अपने परिवार का पेट पालने लगते है। वे इतनी छोटी सी उम्र मे दुनिया को समझने लग जाते है। अच्छे-बुरे कि उनकी अपनी एक समझ होती है। इस सबके बावजूद उनका बचपन कभी नहीं मरता । देखों उनको कभी गौर से तो तमाम मुश्किलों के बावजूद वे आपको हँसते-खेलते ही नज़र आएंगे । ऐसे मे सवाल यही उठता है कि बचपन की क्या उम्र होती है? और हम व्यस्को की नज़र मे किस उम्र मे एक बच्चा बड़ा हो जाता है? ये सब भी आम बच्चों की तरह उतने ही मासूम और उतने ही समझदार होते हैं । बस जरूरत है तो उन्हे सही शिक्षा देने की। परंतु शिक्षा के नाम पर उन्हे रास्ता दिखाने लग जाते है लेकिन ज़रुरत उनको चलना सिखाने की है। अपने रास्ते वो खुद बना लेगे, जैसे कल्ले भाई ने अपने लिए बनाया है।

कभी बिना दरवाज़े की एक साधारण सी झोपड़ी मे रहने वाले मुज्ज़फ़र अंसारी उर्फ कल्ले भाई के जीवन मे एक वक़्त ऐसा भी था, जब उनके घर मे खाने के लिए पर्याप्त अनाज भी नहीं था। उस समय जंगल मे उगने वाले महुए आदि के पत्ते ही उनका भोजन हुआ करते थे। ऐसे मे चंद पैसों मे स्कूल और कॉलेज मे बिकने वाली शिक्षा खरीदने का तो सवाल ही नहीं होता था। 11 साल की छोटी सी उम्र मे वे अपने परिवार की आर्थिक मदद करने के लिए एक किराना की दुकान पर काम करने लगे । यहीं पर उनके गुरु, दुकान के मालिक ने उन्हे पढ़ना और लिखना सिखाया। इसी दौरान उन्हे अपने नाना से चँदेरी के इतिहास की, यहाँ कि संस्कृति की कई कहानियाँ सुनने को मिली। इन कहानियों को सुनते-सुनते उनकी रुचि इतिहास मे बढ्ने लगी और एक दिन उनके हाथ मे चँदेरी: एक परिचय नाम की किताब हाथ लगी।

उसे पढ़ने के बाद उन्हे अपने नाना द्वारा सुनाई गयी कहानियों और इस किताब मे लिखी गयी बातों मे बेहद फर्क दिखा। ऐसे मे हक़ीकत को जानने की जिज्ञासा उन्हे समय की गहराइयों मे ले गयी। पर उनके लिए इन गहराइयों मे उतरना आसान नहीं था। जब उन्होने खोज कि तो उन्होने पाया की चँदेरी मे इसके इतिहास के सैकड़ों शिलालेख मौजूद है पर उनकी लिपि अलग थी और उन्हे सिर्फ हिन्दी आती थी। तब उन्होने विभिन्न लिपियों को सीखना शुरू किया। आज सीखते-सीखते वो दस लिपियों मे पढ़-लिख सकते है। यही नहीं उन्होने चँदेरी के इतिहास पर कई किताबे भी लिखी है। उनकी किताबों को पढ़कर विश्वभर से कई विद्यार्थी चँदेरी में पी॰एच॰डी करने के लिए चँदेरी आए और वे अब तक बीस से अधिक विद्यार्थियों को पी॰एच॰डी करा चुके है। गौर करने लायक बात यह है कि उनके पास डिग्री या डिप्लोमा जैसा कोई कागज का टुकड़ा नहीं है।

चँदेरी के इतिहास को समझते-समझते उनका परिचय यहाँ की प्राचीन संस्कृति से हुए। यहीं उन्होने जाना की हमारे पूर्वजों का रहन-सहन कैसा था। कैसे इस शहर का विकास हुआ। उन्होने देखा की हमारे पूर्वजों ने बेहद सोच समझकर शहर का निर्माण किया था। उन्होने देखा की उन्होने सारे मकान यही पर उपलब्ध संसाधनों से बनाए थे। शहर के निर्माण के लिए उन्होने पहाड़ खोदकर पत्थर निकाले थे। वे बताते है कि पहाड़ ऐसे ही नहीं खोदा गया था। उसके पीछे एक सोच थी। उन्होने ऐसी जगह से पहाड़ को खोदा था जहां पर पहाड़ों से आने वाले पानी को इकट्ठा किया जा सकें। जिससे बरसात नहीं होने पर भी उनके पास पर्याप्त पानी उपलब्ध हो और जब अधिक बरसात हो जाए तो वो पानी बिना शहर और शहरवासियों को हानि पहुँचाए नदी मे मिल जाए। उन्होने प्रकृति के साथ मिलकर ऐसा सिस्टम बनाया था जिससे उनकी सारी जरूरते यहीं पर पूरी हो सकें। परंतु आज जो शहरीकरण हो रहा है उसके पीछे कोई सोच नहीं है। उल्टा हमने अपनी पूर्वजों द्वारा दी गयी विरासत को भूलकर हर जगह सीमेंट के जंगल उगा लिए है।

वे कहते है कि “आप क्या सोचते है कि हाल ही मे चेन्नई मे जो बाढ़ आई वो प्राकृतिक आपदा थी? वो एक मानव निर्मित आपदा थी। हमने शहर के विकास के लिए वहाँ के सारे तालाबो को भरकर सीमेंट के जंगल उगा दिये है। हमारे पूर्वजों ने एक समझ के साथ पानी के लिए रास्ता बनाया था उस पर हमने बिना सोचे समझे अपने मकान खड़े कर लिए। हमने उनकी शिक्षाओं को दरकिनार करके प्रकृति से खिलवाड़ किया है तो प्रकृति भी अपना खेल खेलेगी। हमे लगता है हमारे पूर्वज अज्ञानी थे, वे अंधविश्वासी थे। पर जब आप देखेंगे तो पाएगे वे हर तरह से प्रकृति से जुड़े हुए थे। न सिर्फ भौतिक रूप से बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी। आप विश्वभर कि किसी भी प्राचीन सभ्यता को ले लीजिये। उनके देवी-देवता प्रकृति के विभिन्न प्रतीक थे। वे सूरज पूजा करते थे, वे चाँद को पूजा करते थे। सागर के अपने देवता थे, पानी के अपने देवता थे। आप क्या सोचते है वे सिर्फ कहानियाँ थी। जी नहीं बल्कि वे हमे प्रकृति का सम्मान करने के किए कही गयी थी। आप भगवान शिव के परिवार को ही ले लीजिये, उनके गले मे साँप है और उनके पुत्रो के वाहन गरुड़ और चूहा है। शिवजी का वाहन नंदी एक बैल है और पार्वती जी का वाहन बाघ है। देखेंगे तो पाएंगे कि सब एक दूसरे के दुश्मन है पर सब साथ रहते। प्रकृति भी यही कहती है, सब एक दूसरे से जुड़े हुए है। आज हमने उन कहानियों को नैतिकता से जोड़कर उसमे छिपे ज्ञान को भुला दिया है। हमने खुद को प्रकृति से अलग कर दिया है। ऐसे मे हम स्वयं अपने विनाश को आमंत्रित कर रहे है। आज हमे जरूरत है कि हम, हमारे पूर्वजों द्वारा संचित ज्ञान को समझे और हमारी संस्कृति और विरासत को बचाए। यही वो रास्ता है जिस पर चलकर उन्होने इस धरती को सहेज कर रखा था। इसी पर चलकर हम इस प्रकृति को बचा सकते है।”

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