अन्वेषक: दिनेश कोठारी
व्यवसाय: प्रकाशक
स्थान: इदौर, मध्यप्रदेश

राजस्थान के प्रतापगढ़ के एक छोटे से कस्बे अरनोद के एक मध्यम वर्गीय परिवार मे जन्मे दिनेश कोठारी का बचपन आज के बच्चों से बेहद भिन्न था। उन्हे कभी पढ़ाई का डर नहीं सताया था। उनके परिवार मे कभी किसी ने उनपर यह दबाव नहीं बनाया की उन्हे पढ़-लिखकर सी॰ए, इंजीनियर या डॉक्टर बनना है। उन्हे बचपन मे खेलने-कूदने की पूरी आज़ादी थी। ना ही उनपर समय का कोई बंधन था, वे बताते है की उनके बचपन का वक़्त खेलने-कूदने मे ही बिता। उस वक़्त किसी पर भी किसी तरह का कोई बंधन नही हुआ करता था। उनकी माँ घर का सारा काम देखती थी, उनपर किसी प्रकार की कोई भी बंदिश नहीं थी और ना ही कोई उनके काम मे हस्तक्षेप करता था। उनके पिताजी की ज़िम्मेदारी दुकान संभालने की थी और उनके काम मे हमारा या मान का कोई हस्तक्षेप नहीं था, उसी प्रकार हमारी दुनिया दोस्तों और खेलने-कूदने और स्कूल तक सीमित थी। उसमे कभी किसी ने हस्तक्षेप नहीं किया। उन्हे किसी ने नहीं बताया की उन्हे कब क्या करना है, कैसे करना है। उन्हे अपना काम करने की पूरी आज़ादी थी और इस बात की खूबसूरती यह थी की कभी उन्हे किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। हर काम अपने समय से हो जाया करता था।

उड़ने दो परिंदों को शोख़ हवा में,
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते।
उपरोक्त शेर उस वक़्त के माता-पिता की सोच और उनके बच्चों के परवरिश करने तरीके बयां करता है। दिनेश जी के माता-पिता ने भी कुछ इसी अंदाज़ के साथ इनकी परवरिश कि थी। पर जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया और जब वो आगे की पढ़ाई के लिए गाँव से बाहर निकले तो वो इस सिस्टम के, समय के मायाजाल मे फंसते चले गए। वो बताते है की “कॉलेज के बाद मैंने सोच लिया था की वो दुकान पर बैठकर पिताजी का हाथ बटाएंगे। पर यह मेरा दुर्भाग्य था की हाई-स्कूल का रास्ता हमारी दुकान के बाहर से होकर गुजरता था। इस वजह से स्कूल के अध्यापक अक्सर दुकान पर आया जाया करते थे। उनके बार-बार कहने पर मैं सी॰ए करने के लिए इंदौर आ गया। पर जल्द ही मेरा सी॰ए से मोहभंग हो गया था और मैं इंदौर छोड़ कर घर आ गया था। उसी समय मेरा एक सी॰ए का दोस्त हमारे गाँव आया हुआ था।

उसने बताया जब वो पढ़ाई पूरी कर लेगा तो अच्छे पैसे कमा सकेंगा। उस वक़्त मेरी भी इतनी समझ नहीं थी और कोई मार्गदर्शक भी नहीं था, जो मुझे-सही गलत का फर्क समझा सकें। मेरी भी सोच उस वक़्त के सभी युवाओं जैसी ही थी। मेरे सपने भी बड़े घर, बड़ी गाड़ी और पैसे कमाने के थे। मैं एक बार फिर परीक्षा देकर सी॰ए बन गया और इंदौर मे ही रहकर अपना काम शुरू कर दिया।”
उस वक़्त उन्हे लगता था की सब कुछ सही चल रहा है। वो अच्छे पैसे भी कमा रहे थे पर उन्हे किसी चीज़ की कमी खल रही थी। उन्हे धीरे-धीरे लगने लगा की वो इस सिस्टम मे बंधने लग गए है। उन्होने सोचा कि अगर जल्द ही कुछ नहीं किया तो वो इस बंधन मे बुरी तरह फँस जाएंगे। उसी समय उन्हे किसी काम से गोवा जाना पड़ा। गोवा मे अपने खाली समय मे वे वहाँ के जंगलो की सैर किया करते थे। उस वक़्त उन्हे वहाँ के वन्यजीवन को करीब से देखने का अवसर मिला और यही से उनकी रुचि पर्यावरण और वन्यजीवन मे बढ्ने लगी । उसके बाद उन्होने इनसे संबन्धित कुछ किताबे पढ़ना शुरू किया और उन्हे एहसास हुआ की शहर की इस आपा-धापी मे उन्होने क्या खो दिया है। गोवा से आने के बाद उन्होने इंदौर मे बर्ड वाचिंग शुरू कर दी थी। उनका पक्षियों से गहरा लगाव हो गया था। वे घंटो पेड़ों के नीचे रहकर उन्हे देखा करते थे। उन्हे देखते-देखते वे अपने आप को प्रकृति के बेहद करीब महसूस करने लगे और उनसे बहुत कुछ समझने और सीखने लगे थे। उन्हे एहसास होने लगा था की इतना पढ़-लिखकर भी वे कुछ नहीं जानते है।

हद से बढ़े जो इल्म ज़हर है दोस्तों,
सब कुछ जो जानते हैं, वो कुछ नहीं जानते।

उसी समय भारत मे बदलाव का एक दौर शुरू हुआ और विकास की नयी परिभाषा लिखी जाने लगी। हमारी अर्थव्यवस्था को विश्व के बाज़ारों के लिए खोल दिया गया और शहरों मे विकास की एक आँधी सी चल पड़ी। उस विकास के नाम पर हर जगह सीमेंट और पत्थरों के जंगल खड़े किए जाने लगे और हजारों-लाखों की संख्या मे पेड़ कटने लगे। नदियों की हत्या करके नहरों और सड़कों के जाल बिछाये जाने लगे। दिनेश जी बताते है की एक दिन रातों-रात उनके घर से ऑफिस जाने वाले रास्ते के सारे पेड़ काट दिये गए और सड़क को चौड़ी करने का काम शुरू कर दिया गया उससे वे इतने आहत हुए की 4-5 दिन तक वे उस रास्ते से गुजर नहीं सकें। तब उन्होने कोर्ट मे एक याचिका भी लगाई जिससे इस विनाश को रोका जा सके परंतु उसका कोई नतीजा नहीं निकला। इसके बाद वे पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने के लिए एक संगठन के साथ जुड़ गए और विभिन्न स्कूलों मे जाने लगे। स्कूलों के साथ काम करते-करते हुए उन्हे समझ आया की समस्या की असली जड़ हमारी शिक्षा मे है। स्कूल बच्चों के लिए एक कैदखाने से ज्यादा कुछ नहीं है। यह बच्चों के बचपन को मारकर उन्हे प्रकृति से, समाज से, परिवार से दूर करने का काम कर रही है। उन्हे लालच और प्रतियोगिता के नाम पर एक ऐसी दौड़ मे दौड़ा रही है जिसका कोई अंत नहीं है। उसी वक़्त उनकी बेटी ने 12 क्लास की परीक्षा दी और वो भी सी॰ए बनना चाहती थी। उस वक़्त उन्होने उसे समझाया की वो एक साल का ब्रेक ले और इंदौर मे कुछ शुरू करे। उसके बाद अगर वो चाहे तो वो आगे कि पढ़ाई कर सकती है। तब उन्होने अपनी बेटी के साथ मिलकर इंदौर मे एक आल्टरनेटिव बूक स्टोर शुरू किया। चूंकि उनकी बेटी भी इस सिस्टम को अपने अंदर ढाल चुकी थी, इस वजह से छ: महीने बाद ही उसने इस काम को छोड़ दिया| पर इस दौरान दिनेश जी को कई ऐसी किताबों के बारे मे पता चला, जो विनाश की इस अंधी दौड़ को समझने में बेहद महत्वपूर्ण थी। पर समस्या यह थी की उनमे से ज़्यादातर किताबें भारत मे उपलब्ध ही नहीं थी। तब उन्होने उन किताबों को भारत मे प्रकाशित करने का निर्णय लिया। इस दौरान उन्हे कई दिक्कतों का भी सामना करना पड़ा। कई किताबों के अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्हे दो से तीन वर्षों तक उनके लेख कों समझना पड़ा की उन्हे इस किताब की भारत मे आवश्यकता है और वे बहुत ज्यादा पैसे नहीं दे सकते । वही दूसरी तरफ कई लोगों ने उनकी इस काम मे अलग-अलग तरीकों से मदद भी की जिससे अब तक वे 25 से ज्यादा किताबों को भारत मे प्रकाशित कर चुके है और आज बनयान ट्री इस जगह पर खड़ा है, जहां से बिना किसी आर्थिक मदद के और भी कई किताबें प्रकाशित करने मे सक्षम है।

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