अन्वेषक: मसुनील देशपांडे
व्यवसाय: शिक्षक
स्थान: अमरावती , महाराष्ट्र

दुनिया के सभी वनवासियों ने प्रकृति के साथ विषम और जटिल परिस्थितियों मे जीना सीख लिया था। ये वनवासी उन इलाकों मे रहते आए है जो जैव विविधता से भरपूर होते हैं। भारत में 68 लाख परिवार 227 वनवासी जातीय समूह से संबंधित है। ये लोग ज्यादातर स्थानीय जंगलों में या उनके करीब रहते हैं और इन्होंने हजारों सालों से इन जंगलों की जैव विविधता को संरक्षित करके रखा हुआ है। इन आदिवासियों को जंगल मे पायी जाने वाली बहुमूल्य वनस्पतियों का अद्भुत ज्ञान है। आदिवासी लोगों का वनों और प्राकृतिक संसाधनों के साथ आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, व्यावहारिक, और परस्परावलंबी संबंध रहा हैं। जब तक वन इन वनवासियों के नियंत्रण में थे और तब तक इन्हे अपनी जरूरतों को पूरा करने में किसी भी प्रकार की कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता था। इन्होंने इन जंगलों जटिल परिस्थितियों को ही अपनी जीवनरक्षक प्रणाली बना लिया था। परंतु पिछले 60 वर्षों के दौरान और विशेष रूप से योजना अवधि के दौरान, खनन और विनिर्माण उद्योगों की गति बढ़ी है और साथ ही बिजली और वन संसाधनों के उपयोग भी, तब से इनकी संस्कृति और सदियो से सृजन किए गए ज्ञान पर एक सुनियोजित हमला किया जा रहा है। इसकी वजह से ये हीन भावना से ग्रस्त हो गए है और इनका स्वयं से भरोसा उठ गया है। शहर की चमकती हुई मृगमरीचिका इन्हें अपनी जड़ों से काट रही है। इस बात को जब हमारे अगले परिंदें ने समझा तब इन्होंने वनवासियों के बहुमूल्य ज्ञान को सहेजने और उन्हें उनके सामर्थ्य से फिर से अवगत कराने का काम शुरु कर दिया।

सुनील जी के बचपन में ही उनके पिताजी ने उन्हे बता दिया था कि वे उन्हें दसवीं तक उनकी शिक्षा का भार वहन कर सकते है। उसके पश्चात उन्हें अगर अध्ययन करना है तो इसकी व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी होगी। तब सातवीं कक्षा से ही उन्होने तय कर लिया था कि अपनी शिक्षा का समस्त खर्च वे स्वयं वहन करगे। उस वक़्त वे मूर्तियाँ और बाँस कि पतंगे बना के उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। बारहवीं के बाद जब उनके पिताजी कि मिल बंद हो गयी तब उनकी आर्थिक स्थिति और खराब हो गयी। तब अपनी शिक्षा के साथ-साथ घर कि आर्थिक सहायता का भी भार आ पड़ा। तब वे एक फ़र्नीचर की दुकान पर नौकरी करने लगे और छात्रवृति कि मदद से अपनी शिक्षा पूरी करने लगे। कॉलेज खत्म करने के बाद जब वे इस व्यवहारिक संसार में उतरे तब उन्हे एहसास हुआ कि उनकी इस शिक्षा का व्यवहारिक संसार में कोई महत्व नहीं है। उन्हें अब तक जो भी पढ़ा था वो सब उन्हें व्यर्थ लगने लगा। वो चिंतन करने लगे, शिक्षा क्या है? इसका स्वरूप कैसा होना चाहिए? अगर एक विद्यार्थी अपने जीवन के बहुमूल्य बीस वर्ष उसे प्राप्त करने के लिए मेहनत करता है और उसके पश्चात भी वो अपने जीवनयापन के लिए संघर्ष करता है तो ऐसी शिक्षा का क्या महत्व है? कॉलेज के वक़्त से ही वे छात्र राजनीति से जुड़े हुए थे।

तब उन्होने छात्र संगठनों के साथ मिलकर सभी के लिए समुचित शिक्षा के अधिकारों के लिए आंदोलन भी किए थे पर अब उन्हें लगने लगा था कि इन आंदोलनों का कोई महत्व नहीं है। आंदोलन शिक्षा के स्वरूप को बदलने के लिए होना चाहिए ना की इस शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए। तब उन्होने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक सन्डे स्कूल कि शुरुआत की जहाँ शहर के और गाँव के बच्चों को व्यवहारिक और वैकल्पिक शिक्षा दी जाती थी। इसी दौरान उनके एक शिक्षक ने उन्हे वेणु काले जी के बारे मे बताया और उन्हे कहाँ कि आप उनसे जाकर मिलो। उन्होने कुछ काम शुरू किया है, शायद उन्हें आपकी जरूरत हो। जब वे उनके घर गए तब उन्होने देखा कि कुछ आदिवासी वहाँ बाँस से कुछ बना रहे है। पूरा दिन वहाँ बिताने के पश्चात वेणु जी जब उनसे पूछा कि काम करना चाहोगे तब उन्होने तुरंत हाँ कर दिया। उसके पश्चात उन्होने बाँस कि कारीगरी सीखना शुरू किया। उसके पश्चात उन्होने इस काम के सिलसिले मे देश के कई हिस्सों मे रह कर काम किया। फिर चित्रकूट मे नानाजी द्वारा स्थापित एक विश्वविद्यालय मे उन्होने बाँस का विभाग शुरू किया। पर कुछ समय बाद जब यह विश्वविद्यालय यूजीसी के अंतर्गत आ गया तब और इसका सरकारीकरण हो गया, तब उन्होने यहाँ से जाने का निश्चय कर लिया। क्योंकि वे जानते थे कि सरकारी शिक्षा का क्या स्वरूप है और उससे विद्यार्थियों के जीवन मे कोई फर्क नहीं आने वाला है। तब वे सरकारी नौकरी के तथाकथित सुनहरे अवसर को त्याग कर फिर से नागपुर आ गए। इसी दौरान उनकी मुलाक़ात अपनी बचपन की मित्र निरूपमा जी से हुई। वक़्त बीतता गया और दोनों ने तय किया कि साथ में काम करेगे, फिर कुछ और वक़्त बिता और दोनों ने एक दूसरे के जीवन साथी बनने का निश्चय किया। साथ ही तय किया कि वे गाँव मे रहेंगे और गाँव के लिए तथा गाँव वालों के लिए काम करेगे। वे बताते है कि 2 मई को उनकी शादी हुई और 16 जून को अपना समान लेकर लवादा गाँव मे रहने के लिए आ गए। यहाँ आने के बाद उन्होने यहाँ के मुलवासियों को बाँस कि कारीगरी का प्रशिक्षण देना शुरू किया। इसी दौरान कुछ घटनाएँ ऐसी हुई कि उन्हे लगा कि उन्हे गाँव वालों के लिए काम नहीं करना है अपितु उन्हे गाँव वालों के साथ काम करना है। उनके साथ काम करते हुए उन्हे एहसास हुआ जिन आदिवासियों पर हम शहरी लोगों ने अनपढ़, गँवार और जंगली होने का ठप्पा लगा रखा है, उनके पास ज्ञान और विवेक का भंडार है। वे एक किस्सा बताते है, “एक बार बूढ़ा आदिवासी मार्च के महीने मे उनके पास आम बेचने के लिए आया। तब उन्होने पूछा आम कहाँ से लाया, अभी तो आम का मौसम नहीं है। तब उसने कहाँ कि कल जो हवा आई थी तो पेड़ से गिर गया था। वे पूछने लगे कि फिर तुम इसे क्यों नहीं खाते हो। तब उसने कहाँ कि वो आखा तीज़ से पहले आम नहीं खाते है, यह उनके धर्म के विपरीत है। तुम शहरी लोगों का कोई धर्म नहीं होता है तुम कभी भी, कुछ भी खा सकते हो। वो सोचने लगे यह कैसा धर्म है? उन्होने तो यही सुना था कि हिन्दू, इस्लाम, जैन, बौद्ध आदि धर्म होते है। तब उन्होने अपने गुरुजी से इस बारे मे बात करी। उनके गुरुजी ने उन्हे बताया कि इसके पीछे बहुत बड़ा विज्ञान छिपा है। आखा तीज़ से पहले आम कि बीज़ परिपक्व नहीं होता है। अगर उससे पहले आप उसे खा लेते हो तो वो पेड़ नहीं बन सकता है।

इन आदिवासियों का मानना है कि बीज़ के परिपक्व होने से पहले अगर आप फल खा लेते हो तो आप एक पेड़ कि भ्रूण हत्या कर देते हो।” सुनील जी कहते है इस तरह का ज्ञान और विवेक इन अनपढ़ और गँवारो के पास है। हम लोग पर्यावरण पर चर्चा कर सकते है, उस पर शोधपत्र लिख सकते है पर यह लोग पर्यावरण को जीते है। और अगर इनके इस ज्ञान को संरक्षित नहीं किया गया तो बहुत जल्द यह लुप्त हो जाएगा। इसके लिए उन्होने यहाँ पर ग्राम ज्ञानपीठ कि स्थापना की है जहाँ इस ज्ञान और संस्कृति को सहजते हुए विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा दी जा सके जिससे वे व्यावहारिक जीवन में सफल हो सकें और पर्यावरण के साथ मिलकर जीवन जी सकें। यहाँ कोई डिग्री या सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा। यहा सिर्फ ज्ञान मिलेगा और जिसका कोई शुल्क नहीं होगा। क्योंकि हमारी संस्कृति मे ज्ञान को बेचने कि परम्परा कभी भी नहीं थी।

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