अन्वेषक: अमरजीत शर्मा
व्यवसाय: कृषक
स्थान: फ़रीदकोट, पंजाब
आज पंजाब की कृषि का वरदान अतीत की बात हो चुकी है। हकीकत यह है कि आज कृषि पंजाब का अभिशाप बन चुकी है। आज पूरा पंजाब हरित क्रांति के वीभत्स परिणामों को भुगत रहा है। पंजाब का किसान जो आज से कुछ वर्षों पहले देश का अन्नदाता हुआ करता था, आज उसी अन्न कि वजह से अत्महत्या करने पर मजबूर है। हरित क्रांति के प्रभाव कि वजह से किसानों ने यहाँ कि ज़मीन को इतना जहरीला कर दिया है कि अब उनका शरीर भी जहरीला हो गया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह कि यहाँ से चलने वाली एक ट्रेन का नाम ही कैंसर ट्रेन रख दिया गया है। जिस पंजाब मे पाँच नदियाँ बहती है वही आज प्यासा है। पिछले 50 वर्षों मे पंजाब के किसानों ने कुदरत से अपना रिश्ता तोड़कर अपने ही परों पर कुल्हाड़ी मारी है। हरित क्रांति से प्राप्त शुरुआती नतीजे किसानों के लिए चौंकाने वाले थे। इन्हीं नतीजों का प्रयोग करके सरकार, बड़ी कंपनियों ने पूरे देश के किसानों को धोखा दिया है। पर आज जो पंजाब के हालात है उस पर यह सब चुप्पी साधे हुए है, कारण सिर्फ इतना है कि अगर यह हकीकत देश के अन्य हिस्सों मे किसानों तक पहुँच गयी तो इन कंपनियों का बहुत बड़ा बाज़ार खत्म हो जायेगा। इसका सीधा असर इनके मुनाफे पर पड़ेगा और किसान इनकी गुलामी से इंकार कर देगा। यही वजह है कि 52 परिंदे कि यह आखरी कहानी पंजाब के एक ऐसे किसान कि है, जिसने हरित क्रांति का दंश स्वयं झेला है। पंजाब की और वहाँ के किसानों की हकीकत इनसे बेहतर शायद ही कोई और बयान कर सकता है।
अमरजीत शर्मा, पंजाब के फ़रीदकोट जिले के छोटे से किसान है, जो पिछले 40 वर्षो से खेती कर रहे है। अपने शुरुआती दिनों मे इन्होने भी जहर को अपनाया था और तीस वर्षों तक रासायनिक खाद का प्रयोग किया था। अधिक उत्पादन और पैसों के लालच मे यह कपास जैसी नगदी फसलों की खेती कि तरफ मूढ़ गए थे। 2005 में जब इनकी कपास कि फसल पूरी तरह से बर्बाद हो गयी थी तब ये पूरी तरह से कर्ज़ मे डूब गए थे। जब सरकार बीटी कॉटन का फील्ड ट्रायल कर रही थी तब इन्होने सरकार पर भरोसा कर के बीटी कॉटन के बीजों का प्रयोग अपने खेतों मे किया था। इन्हें बताया गया था कि इस फसल पर कोई कीट नहीं लगेगा। जिन दवाइयों का प्रयोग करने के लिए इन्हें कहाँ गया था और जिस तरह से प्रयोग करने के लिए इन्हे कहाँ गया था, इन्होने बिलकुल वैसा ही किया था।
पर फिर भी इनकी पूरी फसल नष्ट हो गयी थी। उस वक़्त किसी भी सरकारी महकमे से या किसी भी बीज और दवाइयाँ बनाने वाली कंपनी ने इनकी मदद नहीं की। इसका नतीजा इनके बेटे कि आत्महत्या के रूप में यह आज भी भुगत रहे है। उस वक़्त उन्हें खेती विरासत मिशन नाम की संस्था का साथ मिला। जिनके साथ मिलकर इन्होने फिर से अपनी जड़ों की और लौटने का फैसला किया और खेती के पारंपरिक तौर-तरीकों को फिर से सीखना शुरू किया।
वो कहते है कि “इस केमिकल ने हमारी ज़िंदगी को बर्बाद करके रख दिया है। हमारी मिट्टी, खाना, पानी सब दूषित हो चुका है। सरकार द्वारा खेती के आधुनिक तौर-तरीकों का जीतने वृहद स्तर पर प्रचार किया गया है, उसने उतने ही वृहद स्तर पर पंजाब का विनाश किया है। यहाँ कि पारंपरिक फसलें और उनके बीज लगभग समाप्त हो गए है। जिस तरह से धान कि फसल कि सिंचाई कि जाती है उसमे 35 से 40 बार पानी देना पड़ता है। अगर उस पानी को लागत मे जोड़ दिया जाए तो एक एकड़ कि उपज कि कीमत दो से तीन करोड़ तक आ जाती है। पर इस पानी का कोई आर्थिक मूल्य नहीं होने के कारण हमने उसे पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है। हालात यह है कि पाँच नदियों वाले पंजाब को आज बोतल से मुँह लगाकर पानी पीना पढ़ रहा है। इससे बड़ी शर्मनाक बात हमारे लिए और क्या हो सकती है।”
इसी वजह से वे सिर्फ पारंपरिक तरीकों से जैविक खेती ही नहीं कर रहे है। उन्होने अपने खेत पर 70 से अधिक प्रकार कि फसले लगा रखी है और इस तकनीक के माध्यम से उन्होने अपने खेत कि मिट्टी को फिर से जीवित किया है। अपने खेत पर तैयार किए गए इस मॉडल से वे किसानों को बताते है कि एक एकड़ से वे अपने परिवार कि सारी जरूरतें, जैसे- अनाज, सब्जी, मसाले, कपड़े के लिए कपास आदि को कैसे प्राप्त कर सकते है। यहीं नहीं वे विभिन्न प्रकार देशी बीजों का संवर्धन और संरक्षण भी करते है और उन्हें दूसरे किसानों को उगाने के लिए प्रेरित भी करते है।
वो आगे कहते है कि किसानों के साथ-साथ सरकार भी पंजाब के विनाश के लिए जिम्मेदार है। आज दोनों ही स्तर पर हमे ज़िम्मेदारी वहन करने कि जरूरत है। आज अगर पंजाब को बचाना है तो किसानो को फिर से पुरानी तकनीकों को अपनाना पड़ेगा। नया फसल चक्र तैयार करना होगा। प्रकृति के साथ फिर से अपना रिश्ता स्थापित करना पड़ेगा। यह काम हरित क्रांति कि मानसिकता से बाहर आए बिना संभव नहीं है। वहीं दूसरी तरफ सरकार को पारंपरिक खेती को विकसित करने और व्यापक स्तर पर लागू करने के लिए विभिन्न अनुसंधान केन्द्रों कि स्थापना करनी होगी और इसे किसी भी प्रकार के सरकारी विभाग से आज़ाद रखते हुए इसमे किसानों कि सीधे तौर पर भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। क्योंकि एक किसान कि हकीकत एक किसान ही समझ सकता है, बड़े बंगलों और दफ्तर मे बैठे हुए सरकारी अफसर नहीं।