अन्वेषक: अमित अरोड़ा
व्यवसाय: अपशिष्ट प्रबंधक
स्थान: वडोदरा,गुजरात

अँग्रेजी मे एक कहावत है “आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माईंड” आज हमारे देश मे कचरे के प्रति हमारी यही मानसिकता है। हमने हमारे घर की सफाई कर दी और नगर पालिका ने हमारे मोहल्ले की, बस हो गयी ज़िम्मेदारी पूरी। पर किसी ने सोचा है की उस कचरे का क्या होता है? वो हमारे घरों से निकलकर कहाँ जाता है? क्या उसका कुछ और भी प्रयोग हो सकता है? आज से 25-30 साल पहले तक हमारे घरों मे कचरे के रूप से सिर्फ मिट्टी निकला करती थी। बड़े शहरों का तो मुझे ज्यादा नहीं पता पर मेरे घर मे, मेरे शहर मे यही होता था। अपनी कई गांवों की यात्रा मे भी मैंने यही पाया की गाँव के लोग उनके घरों मे आने वाली कोई भी वस्तु का पूर्ण इस्तमाल करने के बाद ही उसे फेंकते है। पर फिर ऐसा क्या हुआ जो हमारी आदतों मे इतना बड़ा परिवर्तन आ गया? 25 साल पहले हमारी अर्थव्यवस्था को विश्व के बाज़ारों के लिए खोल दिया गया था। उसी के फलस्वरूप हमारा देश तथाकथित विकास के घोड़े पर पर बैठ बहुत तेज़ी से विनाश की और दौड़ने लगा है। मध्यमवर्गीय लोगों की आय और जीवनस्तर मे भी हमे बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिला है। मैं इसे बुरा या गलत नहीं कहता पर इसी कारण से हमने यूज एण्ड थ्रो की संस्कृति जो हमने अपनी जीवनशैली मे शामिल कर लिया है उसकी वजह से आज भारत का हर शहर कचरे के ढेर पर बैठा है। यही संस्कृति बहुत तेज़ी से हमारे गांवों मे भी अपने पाँव फैला रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अकेले वड़ोदरा शहर मे 1000 टन कचरा हर रोज़ पैदा होता है। इसमे से 45 प्रतिशत हमारा फूड वेस्ट, यार्ड वेस्ट, और एग्रिकल्चर वेस्ट होता है। ऐसे मे पूरे देश के आंकड़े कितने भयावह होंगे हम बस इसका अंदाज़ा ही लगा सकते है। अगर हम इस कचरे का सही तरीके से निस्तारण कर सकें तो हम एक साथ कई समस्याओं को हल कर सकते है। बायो-डिग्रेडिबल वेस्ट से हम कई टन जैविक खाद का निर्माण कर सकते है, जो हमारी यूरिया और पेस्टिसाइड्स पर निर्भरता को खत्म कर सकती है। बायो-गैस का उत्पादन कर हम ईंधन की समस्याओं का हल खोज सकते है।

ऐसे मे अगर उन्हे मौका मिल रहा है तो क्यों नहीं खुद को आजमाया जाए और एक कोशिश करके देखी जाए। इसी सोच के साथ उन्होने टीएफआई की फेलोशिप के लिए आवेदन कर दिया। कुछ ही महीनों मे उन्हे पता चला की उनका चयन इस फेलोशिप के लिए हो गया है। तब वे अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर पुणे चले गए। यह सब करना उनके लिए या किसी भी और के लिए इतना आसान होता है। खासतौर पर जब आप जीवन के इस पड़ाव पर हो जहाँ आदमी अपने और परिवार के भविष्य को सुरक्षित करेने के बारे सोचने लगते हो। ऐसे मे उन्हें अपनी पत्नी का साथ मिला। वे भी अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर अमित के साथ पुणे चली आई।

टीच फॉर इंडिया के साथ काम करते हुए उन्होने पाया की एक तरफ वे लोग है जिनके पास संसाधनों की कोई कमी है। उनके संसाधन उनके घरों मे ऐसे ही पड़े हुए जिनका कोई उपयोग नहीं होता है और एक वक़्त के बाद वे कबाड़ मे तब्दील हो जाती है और दूसरी तरफ वे लोग है जो अपनी आम जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाते है। ऐसे मे वे सोचने लगे की ऐसा क्या हो सकता जिससे अमीरों के लिए अनुपयोगी संसाधनों को ऐसे लोगो तक पहुँचाया जा सके जो उनकी शिक्षा मे उनकी मदद कर सकें। टीएफआई के बाद दिल्ली की एक संस्था के साथ जुड़कर सरकारी स्कूलों मे बच्चो को डिजिटल लिट्रेसी देने का काम करने लगे और वही पर उन्होने प्रयास करके कुछ कंपनियों से संपर्क करके उनके पुराने संसाधनों को उन बच्चों की शिक्षा के लिए उपलब्ध करवाया था। पर अभी तक उनका उद्देश्य शिक्षा के क्षेत्र मे ही काम करने का ही था। उस वक़्त उन्हे लग रहा था की अगर उन्हें सही मायनों मे कुछ करना है तो उन्हे नौकरी से निकलकर कुछ और करना होगा। पर अब उनकी नई जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी थी। वे एक खूबसूरत बच्ची के पिता बन गए थे। तब उन्होनें फिर से एक बार कॉर्पोरेट नौकरी मे जाने का फैसला किया। उनका उद्देश्य यही था की कुछ वक़्त वे वहाँ काम करके और कुछ पैसे बचा के फिर शिक्षा के क्षेत्र मे काम करेगे। पर अपनी नौकरी के दौरान उन्हे वेस्ट पर कुछ रिसर्च करने का मौका मिला तब उन्हे एहसास हुआ की टीएफ़आई के साथ काम करते हुए उन्होने जो देखा था वो तो पिक्चर का ट्रेलर मात्र था। कचरे की जिस समस्या से हम जूझ रहे है वो हकीकत मे हमारे अनुमान से काफी बढ़ी है।

अगर इसके लिए अभी कुछ नहीं किया गया तो यह समस्या बहुत जल्द एक विकराल रूप ले लेगी। और तब इससे निपटना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। तब उन्होने एक बार फिर से अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया और एक साल पहले अपने परिवार के साथ वड़ोदरा आ गए। यही पर उन्होने अपनी एक छोटी सी कंपनी खोली जिसके माध्यम से वे वे ओरगनिक वेस्ट के मैनेजमेंट का कार्य करते है और साथ ही लोगों मे कचरे की समस्या के प्रति जागरूकता जगाने का प्रयास करते है।

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