अन्वेषक: ब्रिजेन्द्र प्रजापति
व्यवसाय: मिट्टी के बर्तन बनाना
स्थान: पलवल,हरियाणा

दसवीं कक्षा तक पढ़े बृजेन्द्र को बचपन से ही पढ़ाई मे रुचि नहीं थी। उन्हे अपने गाँव और उससे जुड़ी पारंपरिक चीजों से बेहद लगाव था। अपनी पढ़ाई के वक़्त भी उनका ज़्यादातर समय पारंपरिक खेलों (गिल्ली-डंडा, पिट्ठू आदि) खेलने मे बीतता था। जैसे-जैसे वे बड़े हो रहे थे उनकी पढ़ाई मे रुचि बिलकुल खत्म होती जा रही थी। वे बताते है की “दसवीं तक आते आते वे देखने लगे थे की उनके गाँव के कई युवा साथी नौकरी की तलाश मे गाँव छोड़कर शहर जाने लगे थे। वे शहरों की चकाचौंध मे अंधे होकर वहाँ छोटी-मोटी नौकरियाँ करते थे। उन लोगों के पास अपने परिवार के लिए समय नहीं होता था। वे लोग सप्ताह के अंत मे घर आते और अगले दिन सुबह परिवार को सोते हुए छोड़कर फिर से शहरों की और चल देते थे।” उन्हे लगने लगा की ऐसी पढ़ाई और ऐसे काम के क्या मायने है जो इंसान को अपने परिवार से दूर कर दे। इंसान जिन लोगो के लिए कमा रहा है, अगर उसके पास उन लोगों के लिए ही समय नहीं है तो फिर ऐसी कमाई का, क्या महत्व है? वो देख रहे थे कि शहर मे रहने वाले उनके साथी अपनी संस्कृति, अपने गाँव, अपनी मिट्टी से दूर होते जा रहे है। तभी उन्होने पढ़ाई छोड़ने का मन बना लिया और अपने लिए गाँव मे रहकर नए रास्ते बनाने का निश्चय कर लिया। .

जब वे बड़े हो रहे थे तब वे अक्सर अपने पिताजी को चाक पर मिट्टी के बर्तन आदि बनाते देखते थे। अपने पिताजी को काम करते हुए देखते-देखते उनकी भी इस काम मे उनकी बढ़ने लगी। फिर क्या था, वे अपने पिताजी को अपना गुरु बनाकर उनसे काम सीखने लगे और उनका काम मे साथ देने लगे। और उन्होने इसी काम को अपने आजीविका का साधन बना लिया। जब वे थोड़े और बड़े हुए तो वे अपने पिताजी के साथ विभिन्न शहरों मे आयोजित होने वाले हस्तशिल्प मेलों मे भाग लेने लगे। वे कहते है कि इन मेलों मे भाग लेने कि वजह से उन्हे कई कलाकारों से मिलने का और उनकी कलाकृतियों को देखने का मौका मिला।

यही से उन्हे एहसास हुआ कि वे जो काम कर रहे हैं वो कोई आम कार्य नहीं है बल्कि एक ज़िम्मेदारी है, इस कला को जिंदा रखने कि, इसे विकसित करने की, इसके संरक्षण की। तब इन्होने अपने पिताजी के साथ मिलकर कई अलग-अलग प्रयोग करने शुरू किए। इन्होने सबसे पहले बर्तनों पर प्रयोग किए। एक समय जब कुम्हार मिट्टी से सिर्फ मटके, दिये, कुल्हड़ आदि चीज़ें बनाते थे इन्होने रसोई मे काम आने वाले हर बर्तन जैसे- फ्रईंग पैन, हॉट केस, प्लेट, बाउल्स, टी और कॉफी मग्स आदि बनाए। फिर धीरे-धीरे लैम्प शेड्स, खिलौने, हुक्के, आदि सजावट के सामान बनाना शुरू किया और इन्हे विभिन्न मेलों के माध्यम से देश भर मे प्रदर्शित करने लगे। धीरे-धीरे इन प्रदर्शनियों के माध्यम से उनके काम को पहचान मिलने लगी और आज उनके पास कई देशों से ऑर्डर आने लगे है।

परंतु उनका कहना है कि इस कला को ज़िंदा रखना बेहद मुश्किल है। अगर हालत यही रही तो यह कला 25-30 साल से ज्यादा जीवित नहीं रहेगी। उनका कहना है कि एक तरफ कुम्हार कई परेशानियों से गुजर रहा है वहीं दूसरी तरफ नयी पीढ़ी को इस काम को सीखने मे कोई रुचि नहीं है। उनके खुद के बच्चे इस काम को सीखना नहीं चाहते है। उन्हे लगता है कि मिट्टी का काम गंदा है और हमे भी यही बताया जा रहा है कि मिट्टी के संपर्क मे आने से हमारी सेहत खराब होती है। जबकि आप देखेंगे तो पाएंगे कि पिछली पीढ़िया जिनका बचपन मिट्टी के मैदानों मे खेलते हुए बीता है, उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता आज के बच्चों से कई बेहतर है। आज के बच्चों को घर से बाहर निकलते ही छींक आ जाती है। उनका सारा वक़्त टीवी और कम्प्युटर के सामने बीतता है। वे बताते है कि आज कुम्हार के पास काम करने कि पर्याप्त जगह नहीं है क्योंकि जब वो बर्तनों को पकाता है तो उससे बेहद धुआँ होता है ऐसे मे उसे बस्ती के बाहर रहकर यह काम करना पड़ता है। अपने अनुभवों के आधार पर वे बताते है कि जब उनका काम बड़ने लगा तो उन्हे भी अपने गाँव मे लोगों का विरोध सहना पड़ा और इसकी वजह से उन्हे गाँव के बाहर घर लेकर रहना पढ़ रहा है। पर बढ़ी-बढ़ी फैक्ट्रीज़ जो इतना प्रदूषण करती है उनका कोई विरोध नहीं करता है और उसे विकास का नाम दिया जाता है।

वे बताते है कि इस कला को सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही है और शहरी जनता तो इस कला को लगभग भुल ही चुकी है। आज हर घर मे फ्रीज़ है ऐसे मे लोगों को ठंडे पानी के लिए मटकों कि जरूरत नहीं है पर लोग यह भूल चुके है कि मिट्टी से शुद्ध कुछ भी नहीं है। बोतल बंद पानी कई दिन पुराना होता है और प्लास्टिक मे बंद यह पानी धीरे-धीरे एक मीठा जहर बन जाता है। आज हर जगह प्लास्टिक की बोतलों मे बंद पानी सहजता से उपलब्ध है। मिट्टी के कुल्हड़ों कि जगह अब प्लास्टिक के कप आ गए है। मिट्टी के तवों कि जगह नॉन स्टिक पैन आ गए है जिसमे कई तरह के केमिकल्स होते है। अब तो गांवो मे भी लोग प्लास्टिक और धातु के बर्तनों का प्रयोग करना अपनी शान समझते है। भौतिकता के इस नशे मे लोग न सिर्फ इस कला को मार रहे हैं बल्कि अपनी जड़ों से भी दूर हो रहे हैं और अपने साथ-साथ पर्यावरण की सेहत से भी खिलवाड़ कर रहे है। इसका मुख्य कारण वे बताते है कि हमारी शिक्षण व्यवस्था उपभोग कि संकृति को बढ़ावा दे रही है और बच्चों को मानसिक गुलाम बना रही है। ऐसे मे हमे सोचने कि जरूरत है कि हम आने वाली पीढ़ी के लिए क्या विरासत छोड़ के जाना चाहते है। वो जो आने वाली पीढ़ी को एक स्वस्थ और सेहतमंद वातावरण मे पलने-बढ़ने का अवसर दे अथवा एक जहरीले वातावरण मे जीने को मजबूर करे? सवाल लोगों के सामने है और जवाब भी उनके ही पास है…

Leave Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>


clear formSubmit