अन्वेषक: राजेश पंडत
व्यवसाय: नदी संरक्षण
स्थान: नासिक, महाराष्ट्र
यह भारत का सौभाग्य है की भारत की भूमि पर फैली हुई नदियाँ उसके लिए बिलकुल वैसा ही काम करती है जैसा की हमारे शरीर मे फैली हुई रक्त वाहनियाँ हमारे शरीर मे रक्त संचार का काम काम करती है। 329 मिलियन हेक्टेयर के विशाल भौगोलिक क्षेत्र मे फैली हुई यह नदियाँ भारत की प्राकृतिक समृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण है। भारत के सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विकास का भार उठाते हुए ये नदियाँ हजारों वर्षों भारत की धरा पर अविरल बह रही है। ये नदियाँ महज एक जल का स्त्रोत ही नहीं है अपितु यह एक पूरा सिस्टम है जो उसके आस-पास के पूरे वातावरण को, वहाँ की जैव-विविधता को संरक्षित रखती है। इसीलिए सदियों से मानव सभ्यताओं का उदय इन नदियों के तटों पर होता आया है और उनका अस्तित्व नदी के जल पर निर्भर करता आया है। इसीलिए भारतीय संस्कृति मे नदियों का आध्यात्मिक महत्व है और जैसे-जैसे मानव प्रकृति से दूर जाने लगा तो हमारे पूर्वजों ने इनके संरक्षण के लिए इसे धर्म से जोड़ दिया था। परंतु विगत कुछ वर्षों मे, खासतौर पर जब से आधुनिक सभ्यता काल का उदय हुआ, तब से हालत कुछ इस तरह गुजरे है की अधिकांश भारतीय नदियों का जल पीने और नहाने के लिए ही नहीं अपितु कृषि के लिए भी उपयोगी नहीं रह गया है। भारत की अधिकांश नदियाँ विकास की वेदी पर बलि चढ़ा दी गयी है या चढ़ा देने की तैयारी चल रही है। हम अक्सर यह सुनते आए है की नदियों मे नहाने से हमारे पाप धूल जाते है और वो हमारे भीतर की गंदगी को साफ कर देती है पर आज की नदियाँ हमारे आधुनिक विकास का मैला ढोते ही नज़र आती है। इन नदियों के तटों पर हमने विकास के जिन आधार स्तंभों का निर्माण किया है वे अपनी विकास की इबारतें इसकी लाश पर लिख रहे है। हम आज जो ग्लोबल-वार्मिंग का इतना हो-हल्ला सुन रहे है, इसका प्रमुख कारण यही है की हमने हमारी नदियों की हत्या कर दी है। इसकी वजह से उसके आस-पास पायी जाने वाली जैव-विविधता जो कि पूरे इको-सिस्टम का संरक्षण करती थी वह पूरी तरह नष्ट हो चुकी है।
जंगल खत्म हो चुके है, उसमे पाये जाने वाले वन्य पशु-पक्षी लुप्त होते जा रहे है और शायद जल्द ही हम भी लुप्त हो जाएंगे। क्योंकि प्रकृति ने अब मानव के विरूद्ध के युद्ध छेड़ दिया है। इसी भयावह युद्ध का आभास जब हमारे अगले परिंदे को हुआ तो वे मानव को फिर से प्रकृति की तरफ ले जाने, नदियों को उनका खोया हुआ सम्मान फिर से दिलाने और उन्हे फिर से जीवित करने के लिए इस अपने इस मानव समाज के विरुद्ध उनके ही संरक्षण के लिए इस युद्ध मे एक योद्धा बनकर लड़ रहे हैं।
राजेश पंडित, एक आम इंसान। जिसका अपना एक परिवार है, नौकरी करते हुए अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। अपने काम के सिलसिले मे अक्सर उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों मे यात्राएँ करनी पड़ती थी। इन्ही यात्राओं के दौरान उन्हे आधुनिक विकास को करीब से देखने का अवसर मिला। और देश के अलग-अलग हिस्सों मे विकास के प्रभाव पर उनकी अपनी एक समझ बनी। जब वे इन सबसे रू-बरू होते थे तो अक्सर उनका मन उदास हो जाया करता था। पर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते वे कुछ भी कदम उठाने से दूर ही रहते थे। परंतु कुछ वर्ष पहले जब नासिक शहर मे मुंबई-आगरा हाई-वे का निर्माण हो रहा था तब सरकार निर्माण कार्य के लिए सैंकड़ों वर्ष पुराने हजारों पेडों को काटने लगी थी। यह बात उनके लिए असहनीय साबित हुई और इन्होने इसके विरुद्ध एक आंदोलन छेड़ दिया। इसी आंदोलन के तहत उन्होंने महाराष्ट्र सरकार के विरूद्ध मुंबई उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दयार की जिसके माध्यम से ये कई वृक्षों को बचाने मे सफल हुए। इसी दौरान उनका ध्यान गोदावरी नदी मे फैले हुए प्रदूषण की तरफ आकर्षित हुआ। उन्होंने पाया की जो गोदावरी नदी कभी नाशिक शहर के अस्तित्व का आधार हुआ करती थी आज वही गोदावरी इस शहर से अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। तब उन्होंने इसे बचाने के लिए युवाओं और बच्चों के साथ मिलकर इसके लिए एक आंदोलन शुरू कर दिया। परंतु जैसा की इस देश मे होता आया है, बात आश्वासनों से आगे बढ़ ही नहीं रही थी। तब उनके पास न्यायालय मे जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। तब उन्होने नाशिक शहर के प्रशाशन व राज्य तथा केंद्र सरकार के विरूद्ध एक जनहित याचिका दायर की और वहाँ से जब न्यायालय ने प्रशाशन को फटकार लगाई तब गोदावरी को जीवन देने का कुछ काम शुरू हो पाया। पर समस्या यही नहीं थी।
नाशिक की आम जनता नदी के प्रति लापरवाह हो चुकी थी उन्हे भी यह एहसास दिलाना की नदी का उनके लिए क्या महत्व है और उन्हें इस कार्य से जोड़ना बेहद आवश्यक था। इसके लिए उन्होने एक व्यापक जन-जागरूकता अभियान शुरू किया जिसके माध्यम से एक दिन मे बारह लाख बच्चों ने गोदावरी को बचाने की शपथ ली और गोदावरी के लाभ क्षेत्र मे एक दिन में 6,28,000 पेड़ लगाए गए। इसके बाद कुंभ मेले से पूर्व पर्यावरण दिवस के दिन समाज के विभिन्न वर्गो के 22,000 लोगों को एकत्रित किया गया और गोदावरी नदी का सामुदायिक सफाई अभियान छेड़ दिया। वे यही नहीं रुके इसके पश्चात उन्होने महाराष्ट्र सरकार से आहवाहन किया की इस कुंभ को प्रकृति से जोड़ा जाए और इसके माध्यम से लोगों फिर से प्रकृति के करीब लाने का प्रयास किया जाए। इसके लिए उन्होने नाशिक कुंभ को हरित कुंभ का नाम दिया। पर यह सब इतना आसान नहीं था। समाज के प्रभावशाली लोगों ने उन पर कई प्रकार से दबाव बनाया, उन्हें ग्रीन टेरोरिस्ट घोषित करवाकर उन्हे विकास का दुश्मन बताया गया पर वे नहीं रुके। आज गोदावरी धीरे-धीरे शहर के कुछ हिस्सों मे अपने अस्तित्व को पाने मे कामयाब हो रही है पर यात्रा बहुत लंबी है पर उनका इरादा भी उतना ही अटल है और उनका कहना है की जो भी गोदावरी का शत्रु है हमारा भी शत्रु है।