अन्वेषक: इश्तियाक अहमद

व्यवसाय: संरक्षक

स्थान: केडीया गाँव, बिहार

हम लोगो मे से अधिकांश को पता है कि: बिना मिट्टी के इस पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है। पिछले कुछ सालों मे हमारे द्वारा अपनायी गयी तकनीकों के कारण हमारी मिट्टी से आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहे है और उसकी वजह से पूरे विश्व मे अकाल और भुखमरी का दौर चल रहा है।

यह बात उन लोगों को शायद समझ नहीं आएगी जिनका मिट्टी से कोई सीधा संपर्क या रिश्ता नहीं है। जिनके लिए उनका खाना रिलायंस फ्रेश जैसे बड़े स्टोर से आता है या जो रेस्टोरंट मे खाने के आदि हो चुके है पर जिसने अपने जीवन को अगर थोड़ी बहुत भी बागवानी की है वो अच्छी तरह जनता है की मिट्टी की अच्छी गुणवत्ता फसल के परिणामों को पूरी तरह बदल सकती है। वो यह भी जनता है कि मिट्टी का काम सिर्फ खाना उगाने तक ही सीमित नहीं है। यह जंगलों, झीलों, नदियों और घास के मैदानों में पायी जाने वाली अद्भुत वनस्पति और जैव विविधता के संरक्षण में अहम भूमिका निभाती है। यहीं पेड़-पौधे बड़े होकर मिट्टी को वर्षा के जल के साथ बह जाने से रोकने का काम करते है। इसके अलावा मिट्टी भू-जल संरक्षण, नदियों के पानी के संरक्षण और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने मे भी बेहद मददगार साबित होती है।

हमारी मिट्टी मे पृथ्वी का इतिहास छुपा हुआ है। लाखों सालों से पृथ्वी द्वारा तैयार किए गए खनिज इसी मिट्टी मे सुरक्षित है। पृथ्वी के भविष्य के लिए भी मिट्टी का ज़िंदा रहना बेहद आवश्यक है क्योंकि मिट्टी मे पाये जाने जैविक पदार्थ, विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म और अति-सूक्ष्म जीवाणु कार्बन के मुखी स्त्रौत है, जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। जब तक यह जीवाणु मिट्टी में मौजूद रहेंगे तब तक क्लाइमेट चेंज की समस्या से जंग जीतने की हमारी उम्मीद भी जिंदा है। परंतु जब से हमने अपने खेती के तौर तरीकों को बदलना शुरू किया है और खेती मे कई तरह के रसायनों का प्रयोग शुरू किया है, हम लगातार मिट्टी की हत्या करने की कोशिश कर रहें है पर हकीकत यह है की हम आत्महत्या कर रहें है। हम अपने ही विनाश को हँसते हुए आमंत्रित कर रहे है।

हमारे अगले परिंदे को इश्तियाक अहमद जो लंबे समय से किसानों के साथ देशी बीजों के संरक्षण पर काम कर रहे थे, को आधुनिक खेती के तौर-तरीकों से मिट्टी को होने वाले नुकसान का भान हुआ तब वे ग्रीनपीस नाम की संस्था के साथ जुड़कर मिट्टी की सेहत को सुधारने का काम कर रहे है।

इश्तियाक जी बताते है की जब वे इस काम को शुरू कर रहे थे तब उन्होने बिहार के हजारों गाँवो मे किसानो के साथ मिलकर इस बात पर चर्चा की थी। वे आगे कहते है की हर जगह से एक ही बात निकल कर आ रही थी की मिट्टी की हालत बहुत ही ज्यादा खराब है पर किसानों के पास इस समस्या का कोई समाधान नही है। किसान जानते थे की मिट्टी की खराब सेहत की वजह से केंचुए मिट्टी से गायब हो चुके थे। कई सारे कीट-पतंग और उन्हे खाने वाले पक्षी गाँव को छोड़कर जा चुके थे। रसायनिक खाद की वजह से उनके कुओं का पानी दूषित हो चुका था। फिर भी किसान देशी तरीकों की तरफ लौटना नहीं चाह रहा था क्योंकि उसे भरोसा नहीं था की उन तरीकों से उसे पर्याप्त उपज मिल पाएगी। दूसरी तरफ समस्या यह भी थी की पिछले कुछ समय मे गाँवो मे पशुओं की संख्या मे बेहद कमी आ चुकी थी जिस वजह से किसानो के पास खाद के लिए पर्याप्त गोबर भी उपलब्ध नही रहता था। जो भी गोबर किसानो के पास उपलब्ध होता था वे उसे ईंधन के रूप मे प्रयोग कर लेते थे।

तब उन्होने ग्रीनपीस के साथ मिलकर तय किया की एक गाँव को चुना जाए और वहाँ पर किसानों के साथ मिलकर सरकारी स्कीमों का प्रयोग  करते हुए एक मॉडल विकसित किया जाए जिससे दूसरे गाँव के किसान प्रेरित होकर पारंपरिक खेती की पारंपरिक तकनीकों की और लौट सकें। तब उन्होने झमूई जिले के केडीया गाँव के किसानो के साथ बात कर के वहाँ पर काम करना शुरू किया। वे बताते है की किसानों के साथ काम करना इतना आसान नहीं है क्योंकि आप किसान को यह नहीं कह सकते हो की परिणामों के लिए इंतज़ार करे। उसके लिए तो उसकी आने वाली फसल उसकी पूरी जमा पूंजी होती है। इसलिए हमने शुरुआत मे प्रयोग के तौर पर अमरूत पानी का निर्माण किया और उसे एक खेत पर प्रयोग कर किसानो को दिखाया। जब किसानों को इसके परिणाम दिखने लगे तो वे भी धीरे-धीरे कीटनाशकों का प्रयोग कम करने लगे है। आज बीस महीनों की मेहनत के बाद हालत यह है कि पूरे गांव मे एक भी किसान कीटनाशक का प्रयोग अपने खेत मे नहीं कर रहा है। इसके बाद हमने किसानो से बात की कि अब हमे मिट्टी कि सेहत पर काम करना चाहिए। इसके लिए हमने वर्मी कम्पोस्ट तैयार करे। चूंकि अत्यधिक रसायनों कि वजह से केंचुए खेतो से पूरी तरह गायब हो चुके थे और वर्मी बेड बनाने कि लागत किसान व्यय नहीं कर सकता था तो हमने सरकारी योजनाओं का सहारा लिया। सरकारी योजनाओं कि ही मदद से हमने पालतू जानवरो के रख-रखाव के लिए छोटी-छोटी गौशालाओं का निर्माण किया और अब हम गाँव मे किसानों के लिए बायो गैस प्लांट और कम्पोस्ट टॉइलेट का निर्माण करवा रहे है। गोबर गैस कि वजह से किसानो कि ईंधन कि समस्या सुलझ गयी है और प्लांट से निकले अपशिष्ट को वो खाद के रूप मे प्रयोग कर रहा है यही कम्पोस्ट टॉइलेट कि वजह से किसान मानव विष्टा को भी खाद बनाकर उसे खेतों मे प्रयोग कर रहा है। पानी कि समस्या के लिए हमने तालाब बनवाए है। केडीया गाँव मे अब तक किसानों ने सरकारी योजनाओं का लाभ लेते हुए अबतक 282 वर्मी खाद के बेड, 11 बायो गैस प्लांट, 5 तालाब, 5 गौशालाएँ, एक कोल्ड-स्टोरेज और कई कम्पोस्ट टॉइलेट का निर्माण कर चुके है। आज केडीया गाँव का किसान आत्मनिर्भर है। उसकी लागत बेहद का कम हो चुकी है। उसे खाद बीज और पानी के लिए बाज़ार पर निर्भर नहीं होना पड़ रहा है। वही दूसरी तरफ उसकी उपज भी पहले बढ़ गयी है।

इश्तियाक जी आगे जोड़ते हुए कहते है कि जब यहाँ के किसानों ने प्रकृति के साथ जुड़कर फिर से जीना शुरू किया है प्रकृति ने भी अपना पूरा आशीर्वाद इनको दिया है। खेतों अब केंचुए फिर से आने लगे है, कई तरह के पक्षी और तितलियाँ जो गाँव से लुप्त हो चुकी थी वो फिर से गाँव मे अपना घर बनाने लगे है। इश्तियाक जी बताते है कि इन सब कामों के लिए किसानों ने बेहद मेहनत की है और उन्होने सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ उठाया है, पर समस्या यह है कि पर्याप्त प्रचार के अभाव मे और सरकारी अफसरों कि अरुचियों के कारण किसान इन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाता। सरकार योजनाएँ तो खूब बनाती है पर उसे किसानों तक पहुंचाने मे असमर्थ रही है। यहाँ पर समाज के पढे-लिखे और जागरूक लोगों कि ज़िम्मेदारी बनती है कैसे वे सरकार और किसान के बीच की दूरी को कम कर सकें। हमने भी केडीया गाँव में यही काम किया, जिसका नतीजा आज सबके सामने है और सरकार भी आज अपनी सभाओं मे इस गाँव का उदाहरण देती है।

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