अन्वेषक: जगन्नाथ मांझी

व्यवसाय: कृषक

स्थान: मुनिगुडी, ओड़ीशा

हमारे अगले परिंदे जगन्नाथ मांझी ओड़ीशा की नियामगिरी पहाड़ियों के बीच मे रहने वाले एक आम आदिवासी है। वहीं नियामगिरी पहाड़ जिसे हमारी सरकार ने बॉक्साइट खोदकर निकालने के लिए वेदांता जैसी बड़ी खनन कंपनी को भाड़े पर दे दिया था। इसकी वजह से इन पहाड़ो मे रहने वाले आदिवासियों के चार सौ से भी अधिक गावों के उजड़ने का खतरा मंडरा रहा है। नियामगिरी के आदिवासियों ने अपने संघर्ष के माध्यम से अभी तक इन पहाड़ों को, यहाँ के जंगलों को, नदियों को अभी तक बचा रखा है। जब हमारे निज़ामों को इन आदिवसियों के संघर्ष के आगे झुकना पड़ा, तब इन्होने आदिवासी समाज की गरिमा को भंग करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से हमले करने शुरू कर दिये। उनका इरादा है की यहाँ के आदिवासियों को उनकी संस्कृति, उनकी ज़मीन, उनके जंगलों से मानसिक रूप से दूर कर दिया जाए जिससे वो अपने आप इन जंगलों को छोड़ देंगे।

जब जगन्नाथ मांझी ने इस खतरे को भाँपा तो वे इस विषय मे गहन चिंतन करने लगे, की कैसे वे अपने समाज की गरिमा, अपनी संस्कृति को बचा के रख सकते है। जगन्नाथ जी कहते है की करीब 6 साल पहले जब हमारे समाज पर आए इस खतरे से मैं वाकिफ़ हुआ था तो मैं काफी परेशान रहने लगा था। उस वक़्त लिविंग फार्म नाम की संस्था के माध्यम से जंगलों मे उगने वाले खाद्य पदार्थों के संरक्षण करने वाले देबजीत सारंगी से मेरी मुलाक़ात हुई और उन्होने मुझे अपने साथ मिलकर काम करने का प्रस्ताव दिया था। उनसे मिलने के बाद मुझे एहसास हुआ की यह समस्या इतनी विकराल है, जिसका समाधान मैं अकेले नहीं कर सकता, मुझे इस संघर्ष मे यहाँ के आम लोगों का साथ चाहिए था। तब मैंने लिविंग फार्म के साथ जुडने का फैसला किया।

लिविंग फार्म के साथ मिलकर हम गाँव-गाँव जाकर लोगों को इस खतरे के बारे मे शिक्षित करते है, इस जंगल मे पाये जाने वाले भोजन का क्या महत्व है, उसमे कितनी विविधता मौजूद है, उसे कैसे संरक्षित किया जा सकता है और इन खाद्य पदार्थों के संरक्षण के माध्यम से कैसे हम अपनी संस्कृति, अपने समाज की गरिमा और हमारे जल, जंगल और जमीन को कैसे बचा कर रख सकते है उस बारे मे ट्रेनिंग के कार्यक्रम करते है, साथ ही विभिन्न प्रकार के बीजों के संरक्षण का काम करते है।

वो आगे कहते है की यहाँ के आदिवासियों ने अपने संघर्ष के माध्यम से एक बार तो इस जंगल को शहर के शिकारियों से बचा लिया था पर उसके बाद जो खतरे इस समाज पर आने लगे उससे यह सब अंजान थे। इसकी शुरुआत गाँव-गाँव मे स्कूल खोलने से हुई। मैं यह नहीं कहता की शिक्षा बुरी चीज़ है। पर शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे एक आम आदमी स्थानीय स्तर पर अपने आस-पास के वातावरण मे ढलकर अपनी आजीविका अर्जन कर सकें। उस शिक्षा का क्या औचित्य है जो आपको अपनी संस्कृति से, अपनी जमीन से, जिसे हमारा आदिवासी समाज अपनी माँ मानता है, उससे अलग कर दे। आधुनिक स्कूल, हथियार के ऐसे कारखाने है जिनसे विनाश के अलावा कुछ नहीं हो सकता है। इनमे हमारे आदिवासियों को मानसिक रूप से गुलाम बनाया जाता है।

आप हम लोगों को शिक्षित करना चाहते है पर आपकी किताबों मे हमारी संस्कृति, हमारे बरसों से सहेजे गए ज्ञान के ऊपर एक शब्द नहीं है। हमे बताने की कोशिश की जा रही है की हम लोग पिछड़े हुए है, गरीब है क्योंकि हमारे पास पैसे नहीं है। जो लोग ऐसा सोचते है, मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूँ की गरीब की परिभाषा क्या होती है? एक तरफ वो लोग जो अपनी हर जरूरतों के लिए हर समय पैसों की गुलामी करने के लिए मजबूर है या हम लोग जो बिना पैसों के अपनी हर जरूरत को प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना पूरी कर लेते है।

आप बताइये शिक्षित कौन है? वो जिन्हें अपना खाना उगाना नहीं आता है, जो अपना घर खुद नहीं बना सकते है, जो अपना कपड़ा खुद नहीं बुन सकते है, जिन्हें अपना इलाज़ करना नहीं आता है या हम लोग जिनके पास जीवन जीने का हर हुनर मौजूद है। क्या वो लोग ज्ञानी है जो इन किताबों से पढ़कर खाने मे ज़हर मिलाने की बात करते है या हम लोग जो सदियों से बिना ज़हर के खाना उगा रहे है। आप हमारे बुजुर्गों से बात करोगे तो आपको मालूम पड़ेगा की हमारे समाज मे कुपोषण, कैंसर, मधुमेय जैसी कई सारी आधुनिक बीमारियों का नामोनिशान नहीं था। क्योंकि हमारे खान-पान मे इतनी विविधता मौजूद थी की एक स्वस्थ शरीर के लिए आवश्यक पोषण हमारे आस-पास ही मौजूद था। इन शिक्षा के मंदिरों के माध्यम से हमसे हमारा हुनर, हमारा ज्ञान हमसे छीनने की कोशिश की जा रही है। जब हमारे समाज से यह ज्ञान, यह हुनर लुप्त हो जाएगा तो हम खुद हमारे जंगल इन लोगों को सौंपकर इनके गुलाम बनने पर मजबूर हो जायेंगे । इसलिए हम यहाँ के भोजन मे पायी जाने वाली विविधता को केंद्र मे रखकर इस संस्कृति के संरक्षण का काम कर रहें है। क्योंकि अगर हम अपने भोजन को विकास के चंगुल से बचाकर रख पाये तो हमे किसी की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी।

वही दूसरी तरफ मैं शहर के लोगों से कहना चाहता हूँ की आप लोग हम लोगों को पिछड़ा, गरीब समझने की गलतफहमी से बाहर निकले। क्योंकि जब तक हमारा वजूद है, हमारा ज्ञान संरक्षित है, तब तक ही आप लोगों का अस्तित्व है। हम आदिवासी नहीं रहेंगे तो आप भी ज्यादा समय तक इस धरती पर ज़िंदा नहीं रह सकते हो क्योंकि ज़िंदा रहने का असली हुनर, असली ज्ञान आदिवासी समाज के पास है। वो लुप्त हो गया तो मनुष्य का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

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