अन्वेषक: सरस्वती कवालु
व्यवसाय: शोधक
स्थान: हैदराबाद, तेलंगाना
जब आप प्रकृति के बीच रहते है तो आपको प्रकृति से रिश्ता बनाने के लिए कुछ खास प्रयास नहीं करने पड़ते । हरे-भरे पेड़, कई तरह के रंग-बिरंगे फूल, पक्षियों का मधुर संगीत, ताज़ी हवा, शुद्ध पानी और भी बहुत कुछ ऐसी चीज़ें जिनकी खूबसूरती को शब्दों मे बयां करना मुश्किल है, की हम उस तरफ आकर्षित हुए बिना नहीं रह पाते है। इसी आकर्षण की वजह से हमारा न चाहते हुए भी प्रकृति से एक खास रिश्ता बन जाता है। क्योंकि हम देख पाते है की हम इससे अलग नहीं है। हम इसी का एक हिस्सा है और हमारा वजूद इसके बिना अधूरा है। हमारे अगले परिंदे सरस्वती कवालु को भी प्रकृति के साथ अपना रिश्ता स्थापित करने के लिए कोई खास प्रयास नहीं करने पड़े। उनका बचपन आंध्रप्रदेश के एक छोटे से शहर नालगोंडा में कुदरत के करिश्मों के साथ खेलते-कूदते बिता था। शायद यही वजह थी की उनका रुझान बचपन से ही आध्यात्म और दर्शन की तरफ बढ़ने लगा था। चोटी सी उम्र मे ही उनके मन में जीवन के महत्व और उद्देश्य को लेकर सवाल उठने लगे थे। वो अक्सर सवाल करती थी की पढ़ाई, शादी, नौकरी और बच्चों तक ही जीवन सीमित है या इससे से भी आगे बढ़कर जीवन मे कुछ होता है। इसी वजह से उनका बचपन से ही स्कूल मे मन नहीं लगता था।
वह कहती है की “स्कूल मे अक्सर मुझे गृह-कार्य नहीं करने की वजह से डांट और मार का सामना करना पड़ता था। सज़ा के रूप मे मेरा अधिकतर समय कक्षा से बाहर ही बिता। वहीं दूसरी तरफ जहां हम रहते थे वहाँ वामपंथी विचारधारा के लोग अधिक थे इस वजह से समाज के निचले तबकों की समस्याओं से और उनके साथ होने वाले अत्याचारों से मेरा सामना बेहद छोटी उम्र मे ही हो गया था। हैदराबाद शिफ्ट होने के बाद मुझे विवेकानंद को पढ़ने का मौका मिला। उनके दर्शन को पढ़ने के बाद मेरा स्कूल की शिक्षा से बिलकुल मन उठ गया था पर उसी वजह से मुझे देश और समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा मिली। उस वक़्त मैंने यही सोचा था की डॉक्टर बनकर मैं लोगों की सेवा करूंगी पर मैं कभी भी पढ़ाई मे अच्छी नहीं थी इस वजह से मेडिकल कॉलेज मे मेरा दाखिला नहीं हो सका। या वो वक़्त था जब मुझे खुद नहीं पता था की मुझे अब आगे अपने जीवन मे क्या करना है। मैं पूरी तरह से खोई हुई थी। मुझे आगे कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था। उस वक़्त माँ-बाबा की खुशी के लिए मैंने होटल मैनेजमेंट के कोर्स मे दाखिला ले लिया। हालांकि मेरी कोई इच्छा नहीं थी पर पढ़ाई पूरी करने के बाद जब मैं नौकरी करने लगी, तो उस नौकरी ने मेरे जीवन को एक नयी दिशा प्रदान की।”
सरस्वती को अपनी नौकरी के दौरान उन्हे टॉइलेट-बाथरूम साफ करने जैसे काम भी करने पड़े थे। इस वजह से उन्हे समाज के पिछड़े तबकों के जीवन को और उनके काम की महत्ता को गहराई से समझने का मौका मिला और जल्द ही वो इस नौकरी से ऊबकर अपने आपको खोजने के के रास्ते पर निकल पढ़ी। नौकरी छोड़ने के बाद उन्होने इंग्लैंड से मीडिया की पढ़ाई की। जब वे इंग्लैंड मे थी तब उन्हे खाने को लेकर काफी समस्याएँ हो रही थी। उसी समय उन्होने इस विषय मे सोचना और शोध करना शुरू किया। अपनी शोध के दौरान उन्होने पाया की किस तरह से कई जहरीले रसायनों का प्रयोग करके सब्जियों और फलों को प्रेसेर्व करके निर्यात किया जाता है और उन्हे यहा के सुपर मार्केट मे बेचा जाता है। वहाँ से उनके मन मे विकास और उसके प्रभावों पर सवाल उठने लगे, पर उस वक़्त वो ज्यादा कुछ इस बारे मे कर नहीं पायी क्योंकि भारत आने के बाद अपनी शिक्षा का कर्ज़ उतारना था। इसके के लिए उन्होने मुंबई में व्यावसायिक सिनेमा के लिए कुछ वक़्त काम किया पर उनके जैसी विद्रोही आत्मा का मन ऐसी जगह पर कब तक लगता।
वही हुआ जो होना था, जल्द ही व्यवसासिक सिनेमा के क्षेत्र से बाहर निकलकर उन्होने विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर कुछ डॉक्युमेंट्री फिल्म्स बनाई। इन फिल्म्स को बनाते वक़्त उन्हें कई राज्यों की यात्रा करने का मौका मिला। इन यात्राओं के दौरान उन्हें विकास की जमीनी हकीकत से रूबरू होने का मौका मिला और उनके बारे में सोचने का नज़रिया बिलकुल बदल गया। इसके बाद वे कुछ समय तक NAPM (national alliance of people’s movement) के साथ जुड़कर कई सामाजिक आंदोलनों के साथ सक्रिय रूप से काम करती रही। इन आंदोलनों के साथ काम करते हुए वैकल्पिक समाज व्यवस्था पर उनकी सोच और गहरी होती गयी। उन्हे विकेन्द्रीकरण, स्थानीय अर्थव्यवस्था, कामगार, खेती, लघु उद्योगों जैसी व्यवस्था पर गहरा विश्वास होता चला गया। वो अपने लिए एक ज़मीन खोजने लगी जहाँ रहकर वो खुद खेती कर सकती थी। इस दौरान वे कुछ बुनकर समुदायों के साथ जुड़कर भी काम कर रही थी। बुनकरों को सीधे ख़रीदारों से जोड़ने के लिए वे कई समय से प्रयास कर रही थी ऐसे ही एक प्रयास के विफल होने बाद जब वे इस विषय मे सोच रही थी तब चेनथा संथा (The handloom weavers market) का विचार निकल कर आया। चेनथा संथा के माध्यम से वे आंध्रा प्रदेश और तेलेंगना के बुनकरों को सीधे रूप से खरीदारों से जोड़ने का काम पिछले दो सालों से कर रही है जिससे उनके काम को एक पहचान और उचित दाम मिल सकें। इसी दौरान उन्होने अपने खेत पर रहकर खेती करना भी शुरू कर दिया है।
वो कहती है की “इतने सालों तक कई सारे क्षेत्रों मे कार्य करने के बाद मुझे लगता है की मेरी खोज यहाँ आकार समाप्त हुई है। हालांकि मेरी यात्रा अभी भी जारी है और वो चलती ही रहेगी। जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है की मैंने ऐसे कई सारे काम किए जो मुझे पसंद नहीं थे या मैं उनके लिए नहीं बनी थी पर उन सब अनुभवों ने मिलकर ही मेरी शख्शियत का निर्माण किया है। मैं आज जहाँ भी हूँ और जो भी हूँ उसमे मेरे पिछले अनुभवों का बहुत बड़ा हाथ है। मैंने उन अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है और आज भी सीख रही हूँ। और यह सीखना लगातार जारी रहेगा पर महत्वपूर्ण बात यह है की मैं आज जो कर रही हूँ मैं उससे खुश हूँ और यही मैं अपने लिए खोज रही थी।”