अन्वेषक: मुस्तु खान
व्यवसाय: आदिवासी संस्कृति संरक्षणवादी
स्थान: पालनपुर,राजस्थान

बचपन मे एक बार मुस्तु भाई(मुस्तफ़ा खान) ने एक दुकानदार के साथ छल किया था। जब वो 9 साल के थे, तब वे एक दुकान पर कुछ सामान लेने गए थे। दुकान में भीड़ अधिक होने के कारण दुकानदार ने जल्दी मे उन्हे समान तो दे दिया पर वो पैसे लेना भूल गया था। दुकानदार ने उनसे पैसे लेने की जगह उन्हे उल्टे कुछ और पैसे लौटा दिये। जब वे घर गए तो उन्होने अपनी अम्मी को इस बारे मे बताया और हँसने लगे। फिर जब यह बात उनके पिताजी को पता चली तो उन्होने उन्हे खूब फटकार लगाई और उन्हे पीटते हुए फिर से उस दुकान पर ले गए, उनके पिताजी ने उनसे सामान लौटाने को कहा और उन्हे सारे पैसे भी वापिस करने को कहा। जब उन्होने अपने पिताजी से पूछा की आपने सामान तो लौटा दिया पर आपने बिना सामान लिए उसकी पूरी कीमत क्यों अदा करी। तब उन्होने कहा की वो कीमत तुम्हारी गलती की सज़ा थी और मेरी ईमानदारी की कीमत। उन्होने समझाया की इस दुनिया मे ईमानदारी से बढ़कर कुछ नहीं है। तुम बड़े होकर कुछ भी बनो पर कभी किसी का नुकसान मत करना। किसी को धोखा मत देना। जहां तक हो सके लोगों की मदद करना। क्योंकि दुनिया मे लेना ही सबकुछ नहीं होता है। समाज से हमे बहुत कुछ मिल रहा है, कुछ हमारी भी ज़िम्मेदारी बनती है की हम उसे कुछ दे। और इस ईमानदारी से तुम एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते हो।

इसीलिए उनके पिताजी ने उनकी शिक्षा भी गांधी के विचारों के नही बल्कि तालीम के विचारों पर आधारित संस्था मे कारवाई। जब वो कॉलेज मे पहुँचे तब उनके पहले ही साल मे उन्हे कुछ ऐसे अनुभव हुए जिन्होंने उनके जीवन की दिशा बदल दी। कॉलेज की तरफ से एक बार उन्हे एक आदिवासी गाँव मे जाने का मौका मिला। उस गाँव मे जब वे घर पर गए तो वहाँ के हालत देखकर वे अंदर तक हिल गए। उस घर मे एक महिला अपने बच्चे को सूखी रोटी पानी मे डूबा के खिला रही थी। ठंड के मौसम मे उसका बच्चा नंगा था और उसने एक फटी हुई साड़ी से जैसे-तैसे अपना शरीर ढंका हुआ था। घर मे एक तरफ की दीवार ही नहीं थी और पीने का पानी एक फूटे हुए गंदे मटके मे था। यह सब देखने के बाद वो कई दिनों तक सो नहीं पाये और कई दिनों तक रोते रहे। वे सोचने लगे की आज़ादी के इतने वर्षो बाद भी सरकार इनके लिए कुछ कर क्यों नहीं रही है। उनकी इस हालत के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है।

हमसे पहले भी कई लोग इस गाँव मे आए है, वो इनके लिए कुछ कर क्यों नहीं रहे है। और पूरे देश मे ऐसे कितने गाँव है जहाँ लोगों को खाने को पर्याप्त अनाज भी नसीब नहीं है। तब उन्होने तय कर लिया की अब वो सरकारी नौकरी करने के बारे मे नहीं सोचेगे और किसी गाँव मे जाकर वहाँ के लोगों की सेवा करेगे। कॉलेज खत्म करने के बाद वे उत्तर गुजरात के कई गांवों मे घूमे। घूमते-घूमते जब वो खाटी सितरा गाँव पहुँचे तो उन्होने देखा की यह गाँव देश से पूरी तरह से कटा हुआ है। यहाँ न कोई सड़क है ना बिजली। इस गाँव का भारत के नक्शे मे वजूद ही नहीं है। ऐसे मे इन्हे इनके अधिकार मिलना तो बेहद दूर की बात है। तब उन्होने यही रहकर काम करने का फैसला किया और गाँव वालों को उनके अधिकार दिलवाने अपना संघर्ष शुरू कर दिया।

गाँव मे काम शुरू करने से पहले उनके दिमाग मे एक बात साफ थी की वे उन्हे उनके अधिकार तो दिलवाएँगे पर साथ ही उनकी संस्कृति और पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होने देंगे। जब वह गाँव मे आकार रहने लगे तब उन्हे गाँव वालों की भाषा भी नहीं आती थी। गाँव वाले भी उनपर पूरी तरह भरोसा नहीं करते थे। आरंभ के तीन महीने उन्होने सिर्फ गाँव के बच्चों को नहलाने, गाँव वालो के नाखून काटने, उनके बच्चों के साथ उनके मवेशियों का चराने का काम किया। इससे धीरे-धीरे वे गाँव वालों के दिल मे जगह बनाने लगे। इसके बाद वे बच्चों को नयी तालीम के विचारों पर आधारित शिक्षा देने लगे। पर सबकुछ इतना आसान नहीं था। कुछ संस्थाए जो आस-पास के गांवो मे काम करती थी वे गांव के लोगों को डराने लगी। वे अफ़वाह फैलाने लगे की मुस्तु भाई आतंकवादी है, नक्सली है, गुंडे है आपको लूट कर आपके बच्चों को उठा कर ले जाएंगे। वे मुसलमान है और आपका धर्म परिवर्तन करवाने आए है। आस-पास के जो छोटे नेता थे वे मुस्तु भाई को मार डालने का डर दिखाकर उन्हे गाँव से चले जाने को कहने लगे। पर वो भूल गए थे की गांधी जी मुस्तु भाई के प्रेरणा स्त्रोत है। वे हार मानने वालों मे से नहीं है। वे डटे रहे और अपना संघर्ष जारी रखा। इसी का नतीजा है की आज पूरे तालुके का हर सरकारी विभाग खाटी सितरा गाँव को मुस्तु भाई के नाम से पहचानता है। गाँव वालों के सभी काम सरकारी अधिकारी बिना रिश्वत के कर देते है। और हाल ही मे गाँव के हर घर को सौर ऊर्जा से प्रकाशित करने की परियोजना को मंजूरी मिल गयी है।

मुस्तु भाई खुशी से बताते है की “अगले महीने तक गाँव के हर घर मे बिजली होगी। पर वे कहते है उनकी असली उपलब्धि यह नहीं है की गाँव वालों को उनके अधिकार मिलने लगे है। बल्कि उनकी असली उपलब्धि यह है की बाहरी संस्कृति के साथ जुडने के बावजूद यहाँ की संस्कृति जिंदा है। वे गाँव वालों के साथ मिलकर साल मे दो बार आदिवासी मेले आयोजित करते है। और इसमे खूब नाच-गाना होता है पर खूबसूरत बात यह की कोई शराब नहीं पिता है। गाँव वालों ने मिलकर ही यह तय किया है की गाँव मे शराब नहीं बेची जाएगी।”

अब वे गाँव वालों के लिए वहीं पर उपलब्ध संसाधनों से उनके लिए बेहतर रोजगार मिल सके इसपर काम करना चाहते है। जिससे युवाओं को गाँव से पलायन ना करना पड़े। इसके लिए वे वहाँ मिलने वाले शुद्ध शहद का उचित मूल्य गाँव वालों को दिलाने का प्रयास कर रहे है। साथ ही वहाँ उगने वाली जड़ी-बूटियों से गाँव वालों के लिए आय के स्त्रौत खोज रहे है। इसके साथ-साथ वे गाँव वालों को जैविक खेती के लिए प्रेरित कर रहे है और उनके द्वारा उगाये गये अनाज को शहरों मे उचित दाम पर ग्राहकों तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे है। इसी प्रयास के चलते गत वर्ष गाँव वालों को शहद से 3 लाख रुपये की आय हुई है। इतने संघर्षों के बाद आज हालात यह है की आज यह गाँव एक परिवार बन चुका है। सब एक-दूसरे की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते है और यहाँ अब प्रेम की भाषा बोली जाती है।

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