अन्वेषक: हसमुख सपनावाला
व्यवसाय: शिक्षक
स्थान: मंधंगढ़,महाराष्ट्र

मैं अपने अगले परिंदे से जब मिला और जब मैंने उनके काम को समझा तब मुझे अपने बचपन और युवावस्था के वो दिन याद आ गए जब मैं सबसे ज्यादा खुश था। यह वो वक़्त था जब मैं मम्मी-पापा के साथ घूमने के लिए मॉल की जगह शहर के बाग-बगीचों मे जाता था । जब मैं दिनभर घर से बाहर दोस्तों के साथ खेलता था। उनके साथ शहर के बाहर पहाड़ों और जंगलो मे घूमने जाता था। जब हम दोस्त नदियों और तलबों मे नहाते थे। पर देखते ही देखते बहुत तेज़ी से वक़्त की हवा बदली और पुस्तकों और परीक्षा के अत्यधिक दबाव और हर रोज़ बदलती तकनीक के कारण हमारे जीवन मे प्रकृति के साथ सीखने की जगह ही कहाँ बची है। आज हम टेलीविजन और इंटरनेट के मायाजाल मे बेहद व्यस्त हो गए है। पर यह आपसी संवाद नहीं सिखाता है बल्कि हमारे जीवन मे संवाद की जगह को खत्म करता जा रहा है। 1980 के दशक में, एक हार्वर्ड विश्वविद्यालय के जीव-विज्ञानी एडवर्ड ओ विल्सन ने Biophilia नामक एक सिद्धांत प्रस्तावित किया था। उन्होने कहा था की मनुष्य सहज ही अपने प्राकृतिक परिवेश की ओर आकर्षित होता है और उससे सीखने की कोशिश करता है। लेकिन 21 वी सदी के बच्चो को देखकर इस सिद्धान्त पर कई सवाल आते हैं। आज बच्चे घर के अंदर और स्क्रीन के सामने इतना वक़्त व्यतीत करते है की यह एक बहुत बड़ी चिंता का विषय बन गया है। मनोवैज्ञानिकों ने इसे Nature deficit disorder नाम दिया है। मुझे लगता है की यह महज एक बयानबाजी है। हकीकत मे बच्चे बाहर की जगह घर के अंदर बेहद ज्यादा वक़्त बिताते है। एक शोध के अनुसार एक आम भारतीय बच्चा टेलीविज़न के सामने औसतन 7 घंटे व्यतीत करता है…

हसमुख भाई अमेरिका से एक सपना लेकर भारत लौटे थे। उनका सपना था की उन्हे भारत मे अनाथ बच्चों के लिए एक ऐसी जगह बनानी है जहाँ उन्हे अच्छी परवरिश और बेहतर शिक्षा मिल सके। वे खुद भी अनाथ है। इसलिए वे जानते है की एक अनाथ बच्चे को जीवन मे सफल होने के लिए किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। उन्हे बचपन से ही अपना पेट भरने के लिए हर रोज़ एक नयी लड़ाई लडनी पड़ती है। ऐसे मे अच्छी शिक्षा पाना उनके लिए किसी सपने से कम नहीं होता है। वे भी ऐसी ही लड़ाई लड़ते हुए, कई संघर्ष करते हुए अपने जीवन मे उस मुकाम पर पहुँचे थे जहाँ उनके पास भौतिक सुख-सुविधा के हर साधन उपलब्ध थे।

इतना सब कुछ होने बाद भी उनके अंदर यह सपना जिंदा था और वो जो भी कमा रहे थे इसीके लिए कमा रहे थे। फिर 2008 मे अमेरिका मे जब मंदी का दौर आया तब उनके एक दोस्त के छल की वजह से उनकी नब्बे प्रतिशत बचत डूब गयी। फिर भी उनके पास इतना था की वे अपने इस सपने को पूरा कर सकते थे। तब उन्हे एहसास हुआ की हम कितना भी कमाए हमे कम ही लगेगा। अगर उन्हे कुछ करना है तो यही सही वक़्त है। वो चाहते तो अपने नुकसान की भरपाई कर सकते थे पर वे सबकुछ छोड़ कर 6 साल पहले भारत लौट आए।

आरंभ मे उन्होने सोचा था की वे बच्चों को सरकारी स्कूल मे ही भेजेंगे और उनकी परवरिश उनके साथ रहते हुए करेंगे। पर पहले वे खुद बच्चों को पढ़ाएंगे और शिक्षा को बेहतर रूप से समझेंगे। इसके लिए वे मंदनगड़ के समीप ही एक सरकारी स्कूल मे बच्चों को पढ़ाने लगे। बच्चों को पढ़ाते हुए उन्हे एहसास हुआ की उन्हे जो शिक्षा दी जा रही थी वो उनके जीवन को खुशहाल बनाने की जगह उनके जीवन को बर्बाद कर देगी। वो जो भी सीख रहे है उसका उन्हे कोई अनुभव नहीं हो रहा है। वो बस एक बंद कमरे में बैठ कर कुछ किताबे पढ़ रहे है जिनका उनके जीवन मे कोई उपयोग नहीं है।

उनका मानना है कि “हमारी शिक्षा सिर्फ मानव केन्द्रित है जबकि हमे एक ऐसी शिक्षा प्रणाली की जरूरत है जिसमे समस्त विश्व शामिल हो सके। तभी वो समग्र और समन्वयित शिक्षा हो सकती है। और इसके लिए हमे चार दीवारों से बाहर निकलना पड़ेगा। जब तक हम बाहर नहीं निकलेंगे, चीजों को नहीं देखेंगे, उन्हे महसूस नहीं करेंगे तब तक हमारे अंदर जिज्ञासा नहीं जागेगी और हम सवाल नहीं करेंगे। और अगर सवाल नहीं करेंगे तो हमे जवाब भी नहीं मिलेगे । हम ऐसे ही भागते रहेंगे पता नहीं किस चीज़ की तलाश मे।

इसी के लिए हमने कई प्रयोग करते हुए सैंकड़ों बच्चों को लेकर जंगलो मे, पहाड़ों पर, खेतों मे लेकर गए है। हमने विभिन्न वर्गों के कई युवाओं और बच्चों के साथ काम किया है। उनके साथ काम करने के बाद जब हम उनकी आँखो मे संतुष्टि और चेहरे पर मुस्कान देखते है, जब चार दीवारों के पीछे छिपे एक डरे हुए बच्चे को पूरे आत्मविश्वास के साथ मिट्टी मे अपने हाथ गंदे करते हुए देखते है तब हमे अपने प्रयासों कि सार्थकता महसूस होती है। और इन्ही प्रयासों के फलस्वरूप मेरा वो सपना पूरा होने जा रहा है जिसे देखकर मैं 6 साल पहले अमेरिका से भारत लौटा था। इस जुलाई मे हमारे बच्चों का लर्निंग सेंटर शुरू होने जा रहा है।”

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