अन्वेषक: मीनाक्षी उमेश
व्यवसाय: वैकल्पिक शिक्षाविद्
स्थान: धर्मापुरी, तमिलनाडु
आज पूरी दुनिया मनुष्यों के द्वारा की गयी गलतियों के कारण जलवायु परिवर्तन के विनाशकरी प्रभावों का अनुभव कर रहीं है, पानी की गुणवत्ता में कमी, मिट्टी का क्षरण, बाढ़, बढ़ते तापमान, बारिश के पैटर्न में अप्रत्याशित परिवर्तन, और जैव विविधता के नुकसान, समुद्र के जलस्तर का बढ़ना जैसी कई विनाशकरी चुनौतियाँ हमारे सामने सिर उठा के खड़ी हैं और हमारा मज़ाक उड़ा रही है। इन समस्याओं का सबसे ज्यादा प्रभाव उन लोगों पर होता है जो सीधे तौर पर प्रकृति के साथ मिलकर अपना जीवन जीते है और वे लोग जो प्रकृति को अपना भगवान मानते है। ये किसान, मछुआरे, कुम्हार आदि जिनकी आजीवीका हम शहरी लोगों के लालच की भेंट चढ़ गयी है। जिसकी वजह से इन लोगों को अपनी सुकून भरी ज़िंदगी छोड़कर अपनी रोज़मर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए शहरों की और पलायन करना पड़ रहा हैं और शहर की गंदी गलियों मे इन्हे अपनी ज़िन्दगी गुजर-बसर करनी पड़ रही है। कहीं न कहीं हम शहरी लोग इन लोगों के गुनहगार है। हालांकि हम खुद अपने इन गुनाहों से अंजान है। क्योंकि न चाहते हुए भी हमसे यह गुनाह करवाया जा रहा है। कुछ मुट्ठीभर लोगों के स्वार्थ के चलते हमे विकास की एक ऐसी परिभाषा पढ़ाई गयी है जो विनाश से अधिक कुछ भी नहीं है। उसकी वजह से हम एक ऐसी दौड़ का हिस्सा बन गए है जिसका कोई अंत नहीं है।
शहरों की इस गंदी सच्चाई से जब हमारे अगले परिंदे का सामना हुआ तब उन्हें इस दौड़ से खुद को अलग करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखा। उत्तर प्रदेश मे जन्मी मीनाक्षी का पालन पोषण मुंबई मे हुआ था। जैसे-जैसे वे बढ़ी होती गयी उनका सामना चमचमाते मुंबई शहर के पीछे बसने वाले अंधेरे से होने लागा था। वे देख रहीं थी कि इस एक शहर मे दो शहर बसते है। एक शहर जिसमे आंखे चौंधियाने वाली चकाचौंध है और दूसरे शहर मे वो लोग है जो उस चकाचौंध को पाने का सपना लिए अपने गांवो से पलायन करके इस शहर मे आए है। उन्हे दूसरे शहर मे रहने वाले लोगों की जीवनदशा देखकर बेहद दुख होता था। परंतु उनके जीवन में बड़ा बदलाव तब आया जब वे उनकी आर्किटेक्ट की पढ़ाई के दौरान उन्हे दुनिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी मे से एक धारावी मे काम करने का मौका मिला।
वहाँ काम करने के दौरान उन्हे एहसास हुआ की इन बस्तियों मे रहने वाले लोगों की दयनीय स्थिति के जिम्मेदार पहले से शहर मे रहने वाले उन जैसे लोग है। वे अपने लालच और भौतिक सुख-सुविधाओं मे इतने डूब गए है की उन्हे इस बात का एहसास तक नहीं है कि उनकी वजह से किसी और पर क्या असर पड़ रहा है।
जैसे-जैसे वे धारावी मे काम करती गयी उन्हे अपने द्वारा किए गए गुनाहों का एहसास और ज्यादा सताने लगा। तब वे यह काम छोड़कर कुछ समय के लिए तमिलनाडू स्थित औरोविल नामक एक वैकल्पिक समुदाय मे जाकर रहने लग गयी। वही पर रहते हुए उन्हे समझ आया कि जो भी गलतियाँ हम मनुष्यों से हुई है उसकी असली वजह विकास के प्रति हमारी समझ है। हमे जो विकास की परिभाषा पढ़ाई गयी है वो असल मे मृगमरिचिका से अधिक कुछ भी नहीं है। और इस समस्या की जड़ उन्हे हमारी शिक्षा मे दिखाई दे रही थी। वे कहती है की हमारे पर्यावरण से लेकर हमारे व्यक्तिगत जीवन मे हम जो भी समस्याओं का सामना कर रहे है उसकी जड़ सीधे तौर पर हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था मे समाई हुई है। हमारी शिक्षा न सिर्फ हमे अपनी जड़ों से दूर कर रही है अपितु हमे स्वार्थी और गुलाम भी बना रही है। हमारी शिक्षा ने हमारे सामने प्रतिस्पर्धा का ऐसा माहौल खड़ा कर दिया है जहाँ हम सिर्फ अपने लिए सोचते है। हम आज हमेशा डरे हुए रहते है और इसकी वजह से हम अपनी सुविधाओं के लिए जितने भी साधन जुटा ले वे हमारे लिए कम ही रहते है। शिक्षा का असली उद्देश्य हमे हमारे डर से आजाद करना है, हमे विवेकवान बनाना है जहाँ हम बेहतर विश्व की कल्पना कर सकें। हम अपने और प्रकृति मे हमारे साथ रह रहे अन्य जीवों के लिए एक सौहद्रपूर्ण संसार की रचना कर सकें। वे आगे कहती है कि “मैं अपने बच्चों के लिए ऐसी शिक्षा नहीं चाहती थी इसीलिए मैंने अपना एक स्कूल खोलने का निश्चय किया तब जाके पुविधाम की नींव रखी गयी। आज पुविधाम मे आस-पास के गावों के करीब 80 बच्चे पढ़ने आते है। मैं यह कहूँगी की हम यहा पर पढ़ाई नहीं करते है,बल्कि हम यहाँ पर जीवन कैसे जीना है, यह सीखाते है। हम यहाँ पर वो सब काम करते है जो जीवन जीने के लिए आवश्यक है।
हम अपना खाना खुद उगाते है और बनाते है, हम कपड़ा बुनते है, सिलाई करते है, सफाई करते है, यहाँ तक की स्कूल की बिल्डिंग तक बच्चों ने मिलकर बनाई है। हम जो भी काम यहा करते है उसका आधार हमारी प्रकृति रहती है। हम हँसते-खेलते हुए प्रकृति के महत्व और उसे कैसे संभाल कर रखा जा सकें सीखते व समझते है। यह स्कूल न होकर के एक छोटा समुदाय या परिवार है जहाँ सब मिलकर रहते है, जहाँ बच्चों मे लड़ाई भी होती है तो उतना ही आपस मे प्यार भी है। और यही सबसे ज्यादा जरूरी भी है अगर हम मनुष्य मे मनुष्यता को जिंदा रख सकें, अपने आप को समझ सकें, अपनी प्रकृति के प्रति आभारी हो सकें तो हमे कहीं सारी समस्याओं से आज़ादी मिल जाएगी।”