अन्वेषक: दीक्षा भाटिया
व्यवसाय: शिक्षाविद
स्थान: दिल्ली

5 दिसम्बर 1989 के दिन हरियाणा के एक छोटे से शहर हासी में जन्मी दीक्षा भाटिया ने दिल्ली विश्वविद्यालय के जीसस एंड मैरी कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक किया। बाद में Indian Institute of Mass Communication से उन्होने एडवर्टाइजिंग और पब्लिक रिलेशन्स मे अपना मास्टर्स किया। दीक्षा को बचपन से ही रचनात्मक काम करने मे मज़ा आता था। अपने कॉलेज के दिनों के दौरान, वो सक्रिय रूप से नुक्कड़ नाटक व मंच थिएटर से जुड़ी हुई थी। उन्होने कॉलेज के दौरान कई नाटकों के लिए पटकथा लेखन , अभिनय और निर्देशन किया। वह अपने नाटकों के माध्यम से मादक पदार्थों के सेवन, ग्रामीण आव्रजन और समलैंगिकता, विकास और शिक्षा जैसे सामाजिक मुद्दों को एक मंच उपलब्ध कराती थी जिससे इन मुद्दों पर एक स्वस्थ चर्चा का माहौल बन सकें। परंतु कॉलेज के बाद जैसा की सभी आम युवाओं के साथ होता है, एक बेहतर भविष्य का सपना लिए वो भी अपनी आजीविका के लिए एक कॉर्पोरेट के साथ एडवर्टाइजिंग के क्षेत्र मे काम करने लगी। शुरुआत मे उन्हें यह सब अच्छा लग रहा था। पहली नौकरी थी, अच्छी आय, प्रमोशन की असीमित संभावना, एक आम युवा के लिए यह सब किसी सपने से कम नहीं था। उन्हे लग रहा था कि वे अपने सपनों को जी रही है, पर जल्द ही उन्हें एहसास होने लगा कि जिस सपने को वो जी रही है वो एक भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। उन्हे लग रहा था कि उनके काम से समाज को, दुनिया को कुछ भी बेहतर नहीं दे पा रही है। ऐसे मे वो सोचने लगी कि उनकी शिक्षा और काम के क्या मायने है। उन्हे लगने लगा कि यह काम उन्हे अपने अस्तित्व से दूर कर रहा था । वो अपने आप को खोती जा रही थी और अपने काम से खुश नहीं थी। वो हर रोज़ खुद से सवाल करती थी कि वो यह काम क्यो कर रही है, किसके लिए कर रही है? जिन मुद्दों के साथ वे कॉलेज के दिनों मे जुड़ी हुई थी, वे उन पर काम करना चाहती थी। वे बच्चों के साथ कुछ रचनात्मक कार्य करना चाहती थी। पर उन्हे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे? उसकी हालत पिंजरे के उस पंछी के जैसी थी जो खुले आसमान मे उड़ना तो चाहता है पर उसे पिंजरे से प्यार भी है।

पर फिर एक दिन जब वे इस कश्मकश से बहुत ज्यादा परेशान हो हो गयी तब उन्होने इस पिंजरे को तोड़ने का निश्चय कर लिया। तब उन्हे दिल्ली स्थित स्वेच्छा संस्था का ख्याल आया, जिनके साथ वे अपने कॉलेज के दिनों मे स्वयंसेवी के रूप मे जुड़ी हुई थी। उन्होने तुरंत उनसे संपर्क करके उनके साथ काम करने कि इच्छा व्यक्त की और कुछ ही वक़्त मे वो अपनी कॉर्पोरेट नौकरी से इस्तीफा देकर स्वेच्छा के साथ जुड़ गयी। आज उसे स्वेच्छा के साथ जुड़े हुए तीन वर्ष हो चुके है। वो यहाँ पर युवाओं और बच्चों के साथ शिक्षा और विकास से संबन्धित चलने वाले कई कार्यक्रमों मे अहम भूमिका निभा रही है। पहले उसे लगता था कि वो यहाँ बच्चों को कुछ सीखाना चाहती है पर अब उसे ऐसा लगता है कि इन बच्चों का उसकी सीखने कि यात्रा मे एक अहम योगदान रहा है।

आज तीन साल के बाद जब वो अपने आपको देखती है तो खुद को बेहद संतुष्ट पाती है। वो कहती है कि तीन साल पहले लिए गए उसके इस निर्णय ने उसके जीवन को एक नयी दिशा दी है। पिछले तीन साल मे उसने अपने भीतर कई बदलाव देखे है। वो कई बार गिरी है और गिर के संभली है। उसका दुनिया को देखने का नज़रिया बिलकुल बदल गया है। जिन मुद्दों के साथ वो अपने कॉलेज के समय से जुड़ी हुई थी उनमे उसकी समझ और गहरी हुई है। उसे अपनी इस यात्रा मे ऐसे कई लोगों का साथ मिला है जिनकी वजह से उसे बहुत कुछ सीखने को मिला है और वो लगातार सीखती जा रही है। वो कहती है कि उसका तीन साल पहले लिया गया वह निर्णय स्वयं को खोजने कि यात्रा मे उठाया गया पहला कदम था। और यह यात्रा जारी है। बस उसे स्वयं मे विश्वास बनाए रखने कि जरूरत है।

Leave Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>


clear formSubmit